27 अक्तूबर को अपने दूसरे कार्यकाल का दूसरा और शासन का सातवां साल पूरा करने जा रही मनोहर लाल खट्टर सरकार के लिए यह साल अप्रत्याशित चुनौतियों वाला साबित हुआ। वैश्विक महामारी कोरोना का कहर तो कमोबेश पूरी दुनिया पर बरपा, पर 11 महीने से दिल्ली की दहलीज पर जारी किसान आंदोलन की गाज सबसे ज्यादा खट्टर सरकार पर ही गिरी। किसी भी सरकार के लिए दो परीक्षाएं निर्णायक साबित होती हैं: एक, पार्टी आलाकमान की। दूसरी, जनता की। जनता का फैसला तो अगले विधानसभा चुनाव में पता चलेगा, लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा मुक्तकंठ से सार्वजनिक प्रशंसा के रूप में आलाकमान से खट्टर सरकार को सर्वश्रेष्ठ का प्रमाणपत्र मिल गया है। मनोहर सरकार के सातवें साल के सफर और चुनौतियों भरी डगर पर दैनिक ट्रिब्यून के संपादक राजकुमार सिंह की नजर
सत्ता की दूसरी पारी के मध्यकाल की फिसलन से कम सरकारें ही बच पाती हैं। सशक्त प्रधानमंत्री माने जानेवाले नरेंद्र मोदी की सरकार को लेकर भी असहज करने वाले सबसे ज्यादा सवाल सातवें साल में ही उठे, जिनके जवाबों का इंतजार आठवें साल में भी है। ऐसे में आश्चर्य कैसा कि देश की राजधानी दिल्ली के तीन ओर बसे हरियाणा में मनोहर लाल खट्टर सरकार के लिए भी सातवां साल ही सर्वाधिक चुनौतीपूर्ण साबित हुआ। वर्ष 2014 में हरियाणा में पहली बार बनी भाजपा सरकार की बागडोर संभालने वाले मनोहर लाल खट्टर के पहले दो साल भी बहुत प्रभावी नहीं थे। कह सकते हैं कि मुख्यमंत्री समेत ज्यादातर मंत्री पहली बार पद संभाल रहे थे, जबकि राज्य की नौकरशाही बंसीलाल-भजनलाल-ओमप्रकाश चौटाला-भूपेंद्र सिंह हुड्डा सरीखे दबंग मुख्यमंत्रियों के साथ काम कर सत्ता के खेल में माहिर हो चुकी थी। यह भी कि व्यवस्था में बदलाव का प्रभाव और परिणाम सामने आने में समय लगता है। खट्टर सरकार के साथ शायद दोनों ही बातें हुईं। यह तो तथ्य है कि पहली पारी में धीमी शुरुआत के बाद मनोहर सरकार ने जो रफ्तार पकड़ी तो फिर रुकने का नाम नहीं लिया। शहरी निकाय ही नहीं, जींद जैसे विपक्षी गढ़ में भी विधानसभा उप चुनाव में कमल खिला।
यह अनायास नहीं था। जन साधारण ने महसूस किया कि सिर्फ सत्ता नहीं, व्यवस्था भी बदली है। जो क्षेत्र और वर्ग अकसर वंचित रहे, वहां के युवाओं को भी जब सरकारी नौकरियां मिलीं तो संदेश स्वाभाविक ही मैरिट और पारदर्शिता का गया। यह बदलाव लोगों ने रोजमर्रा की जिंदगी में भी महसूस किया। बेशक उसी अवधि में जाट आरक्षण आंदोलन और डेरा सच्चा सौदा समर्थकों की हिंसा ने हरियाणा में कानून-व्यवस्था पर सवालिया निशान ही लगा दिया, लेकिन उनसे सही सबक सीखने का बेहतर परिणाम मनोहर सरकार को मिला, जब वर्ष 2019 में हुए लोकसभा चुनाव में भाजपा राज्य की सभी 10 सीटों पर कमल खिलाने में सफल रही। दरअसल उसी साल हुए विधानसभा चुनाव में 75 पार का नारा लोकसभा चुनाव की सफलता से उपजे अति उत्साह की ही देन था, जिसे हकीकत में नहीं बदला जा सका। ऐसा नहीं था कि चंद महीनों में खट्टर सरकार ने साख गंवाने वाला कुछ कर दिया, लेकिन यह बात साफ हो गयी कि लोकसभा चुनाव परिणाम विकल्पहीनता की देन था, क्योंकि राष्ट्रीय स्तर पर नरेंद्र मोदी का कोई विकल्प ही नहीं नजर आया, जबकि हरियाणा के मामले में ऐसा नहीं था।
बेशक सत्तारूढ़ दल के नाते भाजपा सत्ता की प्रबल दावेदार थी। इसलिए भी क्योंकि पिछली विधानसभा में मुख्य विपक्षी दल के रूप में उभरा इंडियन नेशनल लोकदल सत्ता महत्वाकांक्षाओं की पारिवारिक कलह में ही दोफाड़ होकर मुकाबले से बाहर हो चुका था, लेकिन कांग्रेस इन पांच सालों में फिर से मुकाबले में आ चुकी थी। जैसा कि अकसर कांग्रेस में होता है, चुनाव के मद्देनजर हुड्डा-सैलजा को साथ बिठा कर गहरे तक पसरी गुटबाजी पर एकता का मुलम्मा चढ़ा दिया गया। कांग्रेसी संस्कृति के मुताबिक सभी गुटों-नेताओं में टिकटों की बंदरबांट के बावजूद कांग्रेस को 31 सीटें मिल जाने से भी स्पष्ट हो गया कि 75 पार का नारा आत्मविश्वास के बजाय अति उत्साह की देन था। इसके बावजूद भाजपा बहुमत का आंकड़ा यानी 46 सीटें पा सकती थी। आखिर 2014 की लहर में भी तो उसके हिस्से 47 सीटें ही आयी थीं, लेकिन देवीलाल परिवार और इनेलो में दरार से बनी जजपा द्वारा दलबदलुओं पर लगाया गया दांव ऐसा चला कि 10 सीटों के साथ सत्ता की चाबी उसके हाथ आ गयी और भाजपा 40 पर सिमट गयी। भारतीय राजनीति का अंतिम सच सिर्फ सत्ता है, यह बात एक बार फिर रेखांकित हुई, जब भाजपा को यमुना पार भेजने का नारा देने वाली जजपा ही नयी सरकार की खातिर उसकी जोड़ीदार बन गयी।
सत्ता राजनीति में जोड़ीदार कोई यूं ही नहीं बनता। हर किसी को सत्ता में ज्यादा से ज्यादा हिस्सा चाहिए होता है। इसलिए आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि छोटे से राज्य हरियाणा को भाजपा-जजपा के बीच सत्ता की इस बंदरबांट से दुष्यंत चौटाला के रूप में उप मुख्यमंत्री भी मिला। समय का फेर देखिए, कभी देवीलाल के मुख्यमंत्रित्वकाल में भाजपा के मंगलसेन उप मुख्यमंत्री बने थे, अब भाजपाई मुख्यमंत्री के साथ देवीलाल का पड़पोता उप मुख्यमंत्री है। यह भी कि गृह और वित्त के अलावा ज्यादातर महत्वपूर्ण, राजनीति की भाषा में कहें तो मलाईदार, मंत्रालयों पर जजपा का कब्जा हो गया। यह कहना ज्यादा सही होगा कि मनोहर लाल खट्टर की दूसरी पारी की चुनौतियों की शुरुआत सरकार गठन के साथ ही हो गयी थी। बेशक जजपा के कोटे से फिलहाल दुष्यंत समेत दो ही मंत्री हैं, लेकिन एक और मंत्री पद उसके हिस्से में है। ऐसे में स्वाभाविक ही भाजपा विधायकों के मंत्री बनने की संभावनाएं सीमित हो गयीं। इस सीमित चयन को दिग्गजों की हार ने और भी दुष्कर बना दिया। खट्टर सरकार के पहले कार्यकाल में मंत्री रहे रामबिलास शर्मा, ओमप्रकाश धनखड़ और कैप्टन अभिमन्यु सरीखे दिग्गज चुनाव हार गये तो राव नरवीर और विपुल गोयल को टिकट ही नहीं दिया गया। परिणामस्वरूप सीमित संख्या में मंत्रियों के चयन के लिए भी आलाकमान और मुख्यमंत्री के समक्ष बेहतर विकल्प नहीं रहे।
दूसरी पारी की मजबूरी…
कड़वा सच यही है कि दूसरी पारी में हम जो खट्टर मंत्रिमंडल देख रहे हैं, वह मजबूरी का मंत्रिमंडल ज्यादा है। मुख्यमंत्री खट्टर और गृह व स्वास्थ्य मंत्री अनिल विज के अलावा किसी भी मंत्री को प्रशासनिक अनुभव नहीं है, जबकि नौकरशाही में एक से एक बड़े खिलाड़ी मौजूद हैं। ऐसे में किसी गठबंधन सरकार का हाल और चाल आसानी से समझी जा सकती है। एक-दूसरे के विरुद्ध चुनाव लड़ कर सत्ता की खातिर गठबंधन करने वाले दलों को समान विचार वाले तो नहीं कहा जा सकता, लेकिन दुष्यंत-विज के बीच जब-तब टकराव के अलावा दो साल में कोई बड़ी समस्या उत्पन्न न होना बेहतर समझदारी और तालमेल का संकेत निश्चय ही है। बेशक गठबंधन सरकार में समझदारी-समन्वय बेहद अहम है, लेकिन निर्णायक होता है जन आकांक्षाओं की कसौटी पर खरा उतरना। जैसा कि मुख्यमंत्रित्वकाल के 2500 दिन पूरे होने के अवसर पर मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर ने दावा भी किया, सरकारी नौकरियों में पारदर्शिता, परिवार पहचान पत्र, मेरी फसल-मेरा ब्यौरा, मेरा पानी-मेरी विरासत और सेवा का अधिकार व्यवस्था में बदलाव की दूरगामी परिणाम वाली पहल साबित हो सकती हैं, लेकिन सरकारी भर्तियों की परीक्षाओं के पेपर बार-बार लीक होना नीति और नीयत, दोनों पर ही सवालिया निशान लगा देता है। तंत्र की मिलीभगत के बिना बार-बार इस तरह पेपर लीक हो पाना संभव ही नहीं है। सरकार कहती है कि उसने हर बार पेपर लीक मामले में त्वरित और कड़ी कार्रवाई की है, पर सिर्फ लकीर पीटना पर्याप्त नहीं है। क्षिद्ररहित परीक्षा व्यवस्था बनाना सरकार की जिम्मेदारी भी है और जवाबदेही भी। वैसा न कर पाना सरकार की बड़ी विफलता है, जिसका खमियाजा अंतत: बेरोज़गार युवाओं और उनके परिजनों को भुगतना पड़ता है।
… और खलनायक कोरोना
नरेंद्र मोदी और मनोहर लाल खट्टर ही नहीं, अन्य सभी सरकारों के लिए भी वर्ष 2020 और 21 को अकल्पनीय चुनौतियों से भरपूर बनाने में कोरोना ने खलनायक की भूमिका निभायी है। पिछले साल मार्च में खौफनाक दस्तक देने वाली इस वैश्विक महामारी ने पूरी मानवता को ही खतरे में डाल कर विश्व की ताकतवर सत्ताओं को भी हिला दिया। ऐसे में आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि देश की राजधानी के तीन ओर बसे और उससे सीधे जुड़े हरियाणा ने भी कोरोना की पहली और दूसरी लहर का कहर बहुत गहरे तक महसूस किया। अस्पतालों ही नहीं, श्मशानों के बाहर भी लंबी कतारें देखी गयीं, जो हालात की भयावहता बयान कर रही थीं। देश के अलग-अलग हिस्सों में कमोबेश एक जैसे परिदृश्य बता रहे थे कि दलगत पहचान से परे सत्ता का चरित्र एक जैसा ही होता है। सरकारें न भी मानें, पर सच यही है कि पहली लहर से सही सबक सीख कर हम दूसरी लहर से निपटने की जरूरी तैयारियां करने में चूके, जिसका खमियाजा आम आदमी ने भुगता। जब कई दिनों तक टीवी न्यूज चैनलों पर ऑक्सीजन के अभाव में मरीजों की मौत की खबरें दिखाये जाने तथा उन पर अदालतों की सख्त टिप्पणियों के बाद भी सरकार ऑक्सीजन की कमी से किसी की भी मौत से इनकार कर सकती है, तो कोरोना से मौत के मामलों में सरकारी आंकड़ों पर भी अविश्वास स्वाभाविक ही है। कहना नहीं होगा कि सत्ता और जनता के बीच अविश्वास की गहरी होती यह खाई लोकतंत्र और देश-समाज के लिए शुभ हरगिज नहीं है।
बॉर्डर पर किसान
कोरोना के अलावा एक और मामले में मनोहर सरकार मोदी सरकार की परछाई नज़र आती है। यह मामला है तीन विवादास्पद कृषि कानूनों के विरोध में दिल्ली की दहलीज पर जारी किसान आंदोलन का। कृषि कानून पूरे देश के लिए हैं। पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसान ज्यादा आंदोलित हैं, लेकिन पूरे किसान आंदोलन का केंद्र बना हुआ है हरियाणा। जिन चार बॉर्डर पर किसान धरना दे रहे हैं, उनमें से सिंघु और टीकरी बॉर्डर धरना स्थल ही ज्यादा सक्रिय, मुखर और संवेदनशील नज़र आते हैं। किसानों और पुलिस के बीच सबसे ज्यादा टकराव भी हरियाणा में ही हुआ है। एक दृष्टि से तो इस किसान आंदोलन का असर हरियाणा सरकार पर केंद्र सरकार से भी ज्यादा नज़र आता है। जिस तरह से आंदोलित किसानों ने हरियाणा के मंत्रियों ही नहीं, भाजपा-जजपा गठबंधन सांसद-विधायकों-नेताओं के किसी भी कार्यक्रम का विरोध करने का ऐलान कर रखा है, उसके चलते सरकार चंडीगढ़ तक सिमट कर रह गयी है। इस मामले में सिर्फ दक्षिणी हरियाणा ही अपवाद है, जहां सरकारी कार्यक्रम भी हुए हैं और राजनीतिक कार्यक्रम भी। अगर सरकार और राजनीति इस तरह बंधक बना दी जाये या सीमित कर दी जाये तो उसका असर शासन पर पड़ना स्वाभाविक है, और अंतत: जन साधारण के बीच सरकार की साख पर भी। कृषि कानून बनाने का काज केंद्र सरकार का है, पर सबसे ज्यादा गाज हरियाणा सरकार पर गिरी है।
इन अभूतपूर्व परिस्थितियों में कोई भी गठबंधन सरकार जिन अप्रत्याशित चुनौतियों से रू-ब-रू होती, उन्हीं से मनोहर लाल खट्टर सरकार भी है। इन परिस्थितियों से निजात पा कर अपनी छवि सुधारने की उसकी स्वाभाविक छटपटाहट भी समझी जा सकती है। पिछले कार्यकाल में कमोवेश हर चुनाव जीतने वाली भाजपा इस बीच बरोदा विधानसभा उप चुनाव की परीक्षा में फेल हो चुकी है। 30 अक्तूबर को होने जा रहे ऐलनाबाद विधानसभा उप चुनाव की परीक्षा में भी कोई चमत्कार ही परिणाम उलट सकता है। माना जा रहा है कि ऐलनाबाद उप चुनाव से निपट कर मुख्यमंत्री खट्टर चिर प्रतीक्षित मंत्रिमंडल विस्तार को अंजाम दे सकते हैं, पर जब भाजपा-जजपा, दोनों ही दलों के हिस्से का एक-एक मंत्री पद ही खाली है तो उस कवायद की सीमाएं भी समझी जा सकती हैं। ऐसे में प्रधानमंत्री मोदी की तरह कार्यकाल के मध्य में व्यापक मंत्रिमंडलीय फेरबदल से नये सिरे से राजनीतिक-सामाजिक समीकरण साधने की कवायद की जा सकती है। जैसा कि पहले ही लिखा गया है, विकल्प ज्यादा नहीं हैं, लेकिन फिर भी बेहतर राजनीतिक-सामाजिक समीकरण संभव हैं, और जरूरी भी, क्योंकि कुछ बड़े भाजपा नेता भी आलाकमान को आंखें दिखाने का अवसर नहीं चूक रहे हैं।
राजनीतिक चुनौतियां भी कम नहीं
कोरोना और किसान आंदोलन ने मनोहर लाल खट्टर सरकार के सातवें साल को सबसे मुश्किल सवाल बना दिया है, तो भाजपा के लिए राजनीतिक चुनौतियां भी कम नहीं हैं, जिनसे मुख्यमंत्री को प्रदेश भाजपा अध्यक्ष ओमप्रकाश धनखड़ के साथ मिल कर निपटना है। यह खुला रहस्य है कि वर्ष 2014 में पहले लोकसभा और फिर विधानसभा चुनाव में भी, भाजपा के पास सभी सीटों के लिए दमदार उम्मीदवार ही नहीं थे। सो, दलबदलुओं पर दांव लगाना पड़ा, जिनमें बहुतायत उन कांग्रेसियों की थी, जो हवा का रुख भांप कर पाला बदलने को तत्पर थे। अहीरवाल के संबोधन से मशहूर दक्षिण हरियाणा के बड़े नेता राव इंद्रजीत सिंह समय-समय पर अपनी नाराज़गी जताते रहे हैं। कांग्रेस सरकार में भी केंद्र में मंत्री रह चुके इंद्रजीत ने अपनी बेटी को राजनीतिक उत्तराधिकारी बनाने की इच्छा कभी नहीं छिपायी, पर भाजपा एक परिवार में एक टिकट के तर्क के सहारे आरती राव को टिकट देने से इनकार करती रही। बेशक आरती को हरियाणा प्रदेश भाजपा कार्यकारिणी में जगह दी गयी है, इंद्रजीत के पसंदीदा विधायक खट्टर मंत्रिमंडल में भी शामिल हैं, पर अहीरवाल के राव इतने से संतुष्ट नहीं दिखते। अब जबकि मोदी मंत्रिमंडल के पिछले फेरबदल में गुरुग्राम के मूल निवासी भूपेंद्र यादव को मंत्री बना कर अहीरवाल में उनकी जन आशीर्वाद यात्रा निकाली गयी तो उसका राजनीतिक निहतार्थ यह भी निकाला गया कि भाजपा आलाकमान दक्षिण हरियाणा में सिर्फ इंद्रजीत पर ही निर्भर नहीं रहना चाहता।
ध्यान रहे कि जीटी रोड बेल्ट के मुंह मोड़ लेने के बाद इस बार हरियाणा में भाजपा की सरकार बनवाने में दक्षिण हरियाणा की ही सबसे अहम भूमिका रही, जिसके सबसे बड़े नेता राव इंद्रजीत ही हैं। उन्हीं के समुदाय के भूपेंद्र यादव को महत्वपूर्ण मंत्रालय देकर अहीरवाल में जन आशीर्वाद यात्रा निकाले जाने से शायद इंद्रजीत भी सशंकित हुए और एक नहीं, दो बार अपना शक्ति प्रदर्शन भी कर दिया। बेशक भूपेंद्र यादव राजस्थान से राज्यसभा के सदस्य हैं, लेकिन भाजपा की नयी राष्ट्रीय कार्यकारिणी में उन्हें हरियाणा से सदस्य बना कर आलाकमान ने भावी राजनीति का संकेत दे दिया है। वर्ष 2014 में ही पाला बदल कर भाजपा में आये एक और कांग्रेसी दिग्गज रहे चौधरी बीरेंद्र सिंह। चौधरी छोटूराम की विरासत की राजनीति करनेवाले बीरेंद्र कभी नेहरू परिवार के विश्वस्तों में गिने जाते थे। 1991 में राजीव गांधी उन्हें हरियाणा का मुख्यमंत्री बनाना चाहते थे तो बाद में सोनिया के साथ एकजुटता दिखाने के लिए उन्होंने अर्जुन सिंह और नारायण दत्त तिवारी के साथ मिलकर तिवारी कांग्रेस भी बनायी थी, लेकिन 2005 में भूपेंद्र सिंह हुड्डा के मुख्यमंत्री बनने के बाद वह कांग्रेस में ही हाशिये पर चले गये। 2014 में हवा का रुख बदला तो भाजपा में आ गये।
मोदी सरकार में मंत्री भी रहे। उनकी पत्नी प्रेमलता को भी भाजपा ने विधानसभा का टिकट दिया। 2019 में जब आईएएस बेटे बिजेंद्र सिंह को हिसार से लोकसभा का टिकट दिलवाया तो बीरेंद्र को मंत्री पद और राज्यसभा छोड़नी पड़ी। स्वाभाविक ही उन्हें उम्मीद रही होगी कि कम से कम इस बार के फेरबदल में तो बिजेंद्र को मोदी मंत्रिमंडल में जगह मिल ही जायेगी, लेकिन ऐसा हुआ नहीं। उसके बाद बीरेंद्र किसान राजनीति में सक्रियता के जरिये आलाकमान को संदेश देते रहे, लेकिन भाजपा राष्ट्रीय कार्यकारिणी से बाहर कर उन्हें टका-सा जवाब दे दिया गया है। ऐसे में भाजपा को बांगर क्षेत्र में अपने राजनीतिक-सामाजिक समीकरण नये सिरे से बिठाने पड़ सकते हैं। भाजपा की भावी राजनीतिक चुनौतियां बहुत कुछ भूपेंद्र सिंह हुड्डा पर भी निर्भर करेंगी। सात साल से लगातार प्रयास के बावजूद कांग्रेस आलाकमान हरियाणा में हुड्डा को फ्री हैंड देने के मूड में नहीं दिखता। यह सही है कि सैलजा के प्रदेश अध्यक्ष और हुड्डा के नेता प्रतिपक्ष बनने के बाद कांग्रेस की सक्रियता और ताकत भी बढ़ी है, लेकिन दोनों नेताओं के बीच परस्पर अविश्वास किसी से छिपा नहीं है। सैलजा, सोनिया गांधी की विश्वस्त हैं तो रणदीप सिंह सुरजेवाला, राहुल गांधी के निकट माने जाते हैं।
ऐसे में कांग्रेस में हुड्डा को फ्री हैंड मिल पाना आसान तो हरगिज नहीं। 2019 में अलग पार्टी बनाते-बनाते रह गये हुड्डा भविष्य में सब्र का प्याला छलकने पर क्या करेंगे, इस पर उनकी ही नहीं, भाजपा और उसकी जोड़ीदार जजपा की भावी राजनीति भी निर्भर करेगी।