प्रसन्न रहने की हमारी समृद्ध कला परंपरा : The Dainik Tribune

रंगोली

प्रसन्न रहने की हमारी समृद्ध कला परंपरा

प्रसन्न रहने की हमारी समृद्ध कला परंपरा

मंडला आर्ट आजकल तनाव कम करने में कारगर कला के तौर पर खूब प्रचलन में है। लेकिन प्रसन्न रहने और तनाव दूर करने में देश की अन्य पारंपरिक कला रंगोली भी कम मददगार नहीं। लगभग सभी प्रदेशों में अलग-अलग रूपों में उत्सवों के दौरान रंगोली बनाई ही जाती है।

केवल तिवारी

मंडला आर्ट का नाम आपने सुना होगा। कोविड काल से इसका प्रचलन बढ़ा है। वैसे मंडला आर्ट को बहुत प्राचीन बताया जाता है। असल में कला के इस स्वरूप में विभिन्न आकृतियों में रंगों का समायोजन किया जाता है। इसे तनाव कम करने की कारगर कला के तौर पर प्रचारित किया जाता है। बेशक नये दौर में मंडला आर्ट पर जोर दिया जा रहा हो, लेकिन असल में प्रसन्न रहने और तनाव दूर करने की हमारी परंपरा समृद्ध रही है। इसी परंपरा का एक स्वरूप है रंगोली। कहीं शुभकार्यों में यह घर-आंगन में सजाई जाती है तो कहीं प्रवेश द्वार पर प्रतिदिन इसे बनाने का रिवाज आज भी है। रंगोली की परंपरागत समृद्धि ही थी कि फिल्मों में भी इसे विशेष तवज्जो मिली। वर्ष 1962 में तो एक फिल्म का नाम ही था ‘रंगोली।’ इसका एक गीत बहुत प्रसिद्ध रहा : ‘रंगोली सजाओ रे, तेरी पायल मेरे गीत आज बनेंगे दोनों मीत…।’ यूं रंगोली गीत-संगीत और फिल्मी सेट पर रंगोली बनाने का रिवाज आज भी कायम है। कहते हैं कि पद्मावत फिल्म में जो रंगोली बनी थी, उसे बनाने में कलाकारों को कई-कई घंटे लगे थे। इसके अलावा भी अनेक जगहों पर रंगोली बनाओ प्रतियोगिताएं आयोजित की जाती हैं।

रंगोली तो एक ‘कॉमन’ नाम है, असल में इसके स्वरूप और नाम विभिन्न तरह के हैं। पहले बात करें इसकी सामूहिकता, रंग संयोजन, आनंददायक मेहनत पर। असल में गांवों में ज्यादातर घरों में रंगोली विशेष अवसरों जैसे धार्मिक, पारिवारिक उत्सवों के दौरान बनाई जाती है। सामान्यत: इसे बनाने के लिए गेरू का इस्तेमाल किया जाता है। गेरू के ऊपर कहीं आटे से तो कहीं चावल पीसकर बनाए लेप से कलाकारी की जाती है। धीरे-धीरे स्वरूप बदला और रंगोली को अलग-अलग रंग के पेंट से बनाया जाने लगा। इसमें डिजाइन और रंग संयोजनों पर भी प्रयोग होते गए।

प्रदेशों में अलग-अलग नाम

रंगोली को प्रागैतिहासिक काल की कला कहा जाता है। समय के साथ-साथ रंगोली के डिजाइन और स्वरूप बदलते गए। आज अलग-अलग प्रदेशों में इसको बनाने की विधि के साथ ही इसका नाम भी अलग है। कहीं इसे अल्पना कहा जाता है तो कहीं कोलम और कहीं-कहीं चौक पूरना भी। अल्पना के अलावा अरिपन, कोलम, मुगू, मांडना, ऐपण नाम भी रंगोली के ही हैं। अल्पना नाम बंगाल में प्रचलित है। यहां चावल के सूखे आटे से ही रंगोली बनाई जाती है। अरिपन नाम बिहार में है। इसे आंगन की दीवारों पर बनाने का रिवाज है। तमिलनाडु और केरल में इसे कोलम कहते हैं। मुगू नाम आंध्र प्रदेश में है। मालवा, राजस्थान आदि में बनने वाली ऐसी ही कलाकृतियों को कहते हैं मांडना। उत्तर भारत के कई घरों में रंगोली का ही एक स्वरूप है चौक पूरना। उत्तराखंड में इस कला को ऐपण कहा गया है। कहा जाता है कि यह संस्कृत शब्द अर्पण से बना है। मान्यता है कि ऐपण एक प्रकार का लेखन है, जिसे अपने देवी-देवताओं को समर्पित किया जाता है। ऐपण भी गेरू पर चावल के आटे से पेस्ट बनाकर बनाया जाता है। नाम चाहे जो भी हो, इसका मूल भाव है प्रसन्नता को कला के माध्यम से दर्शाना और इसे बनाने में खुद को व्यस्त रख तनाव से मुक्ति पाना। रंगोली के पीछे एक भाव यह भी है कि यह खुशहाली का प्रतीक है। खुशहाली यानी परिवार में सामंजस्य। खुशहाली यानी सबके स्वस्थ रहने की कामना। खुशहाली के इसी स्वरूप के कारण ही द्वार पर चावल-आटे, हल्दी की रंगोली का प्रतीक छिपा है। क्योंकि कीड़े-मकौड़े वहीं रुक जाते हैं, कभी भोजन (आटे) की प्राप्ति के बाद और कभी एंटी बायोटिक हल्दी के कारण।

हल्दी से निर्मित कलाकृति

पंजाब, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, राजस्थान एवं मध्य प्रदेश के कई इलाकों में रंगोली या अल्पना बनाने जैसा ही रिवाज है। इसमें देहरी को गोबर से लीपा जाता है व हल्दी से कलाकृतियां बनाई जाती हैं। बेशक आज के दौर में कला का यह स्वरूप लुप्तप्राय सा हो गया हो, लेकिन कई जगह अब भी इस परंपरा को देखा जा सकता है। गोबर से लीपने के बाद हल्दी से कलाकृति बनाने का मकसद भी स्वास्थ्य और समृद्धि से सीधा जुड़ा है।

बेटियों के ही जिम्मे क्यों?

रंगोली के विविध रूपों को सजाने-बनाने की जिम्मेदारी बेटियों की ही होती थी। कहीं-कही बहुओं की भी। असल में बेटियों को ‘उत्सव’ माना गया है। फिर घर में साज-सज्जा संभालने वाली बहू-बेटियां तनावमुक्त रहें और अपनी कल्पनाओं को इन कलाकृतियों में भी उकेर सकें, इसी भाव से यह जिम्मेदारी उनको दी जाती थी। हालांकि अब पूरा परिवार रंगोली बनाने में साथ देता है।

बदला स्वरूप, भाव वही

रंगोली, अल्पना आदि का स्वरूप समय के साथ बदल गया। कहीं-कहीं बने-बनाये स्टीकर आ गए। कहीं-कहीं लकड़ी के बुरादे को रंगीन बनाकर भी बेचा जाता है और गत्तों के डिजाइन के साथ इस बुरादे से रंगोली बनाई जाती हैं। कुछ लोग पेंट के जरिये ‘परमानेंट रंगोली’ का भी इंतजाम कर लेते हैं। भले ही स्वरूप बदल गया हो, लेकिन भाव वही है कि घर में समृद्धि का वास हो, सकारात्मक ऊर्जा का अनुभव हो व तनाव कम हो।

... और अंत में मंडला आर्ट…

अब बात करें आजकल ज्यादा प्रचलित ‘मंडला आर्ट’ की। मनोवैज्ञानिकों के मुताबिक यह तनाव कम करने का कारगर तरीका है। चंडीगढ़ के काउंसलर एवं करिअर गाइड आदि गर्ग कहते हैं, ‘मंडला आर्ट पर जरूर हाथ आजमाना चाहिए। यह तनाव को तो कम करता ही है, एकाग्रता भी बढ़ाता है।’ असल में जब कोविड के कारण लोगों में तनाव ज्यादा बढ़ा तो इस आर्ट के बारे में ज्यादा प्रचारित किया गया। मंडला आर्ट एक प्रकार से पैटर्न कला है। तरह-तरह के पैटर्न को रंग भरा जाता है। कहा जाता है कि यह बौद्धकालीन कला है। असल में मंडल का मूल अर्थ होता है पूर्ण। एक बिंदु से शुरू कला का स्वरूप जब पूर्णता को प्राप्त होता है तो वह मंडला आर्ट है।

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