आलोक यात्री
वाकिंग स्ट्रीट के पास की कोई गली थी वह। गली के ओर-छोर तक दोनों तरफ शानदार होटल और शोरूम। इनके बीच की सड़क पर फुटपाथ की दुकानों की कतारें। शहर की सड़कों पर मटरगश्ती करते हम इस ओर निकल आए थे। मकसद था होटल पहुंचकर आराम करने का। ‘अलीबाबा’ के भोजन से तृप्त होकर लौटे थे। गली में एक भारतीय रेस्तरां का साइन बोर्ड देखकर राहत महसूस हुई। अब दूर नहीं जाना पड़ेगा। अलीबाबा भी अच्छा था लेकिन दूर था। दिल में यह ख्याल भी कुलबुलाने लगा कि आज शाम से ही भोजन यहीं किया जाएगा।
समय गुजारने की नीयत से साथ आए मित्र फुटपाथी दुकानों में सामान उलटने-पलटने लगे। कुछ सेल्फी लेने में व्यस्त थे। भारतीय रेस्तरां ने मेरे भीतर देश प्रेम के जज्बे को जिंदा कर दिया। यह मेरी पहली विदेश यात्रा थी। मित्र लोग अक्सर विदेश यात्रा करते रहते थे। लिहाजा मैं हर चीज को विस्मय से देख रहा था। भारतीय रेस्तरां के नाम ने मेरे भीतर विदेशी धरती पर किसी भारतीय से मिलने की उत्कंठा को जागृत कर दिया था। हमारे ग्रुप में मैं और शर्मा जी ही उम्रदराज थे। बाकी नौजवान थे जो अपनी ही उम्र की फुटपाथी दुकानदार लड़कियों से सामान पसंद करने के बहाने चुहलबाजी कर रहे थे। मैं कुछ और साइन बोर्ड पर इस आस में नजर डालता जा रहा था कि शायद कोई और भारतीय निशानी नजर आ जाए।
सफेद दाढ़ी और सिर पर पगड़ी धरे एक सरदार जी को सामने खड़ा देख कर मन पुलकित हो गया। हाथ जोड़कर मैंने आदर से गर्दन झुका कर उनका अभिवादन किया। लेकिन उन्होंने मेरे स्नेह प्रदर्शन पर रत्ती भर भी ध्यान नहीं दिया। उनके हाव-भाव से लग रहा था कि उन्हें मेरी वहां मौजूदगी का अहसास तक नहीं था। मैंने उन्हें गौर से देखा। उन्हें देख कर ऐसा लग रहा था कि वह कहीं शून्य में ताक रहे थे। ना… उनकी आंखें पूरे तौर पर खुली थीं, सजग थे। मैं उनके ठीक सामने जा खड़ा हुआ। चेहरे पर भरपूर मुस्कुराहट लाते हुए अभिवादन की प्रक्रिया मैंने एक बार फिर दोहराई। लेकिन सरदार जी निर्विकार खड़े रहे। मैंने अनुमान लगाया कि वह शायद ऊंचा सुनते हैं।
इस इलाके में बाजार दिन में सुनसान रहते हैं। यहां के बाजार रात को ही गुलजार होते हैं। बीती रात इन्हीं सड़कों पर उमड़ा जनसैलाब इस समय नदारद था। दुकानों में इक्का-दुक्का सैलानी नजर आ रहे थे। जिस ठसके के साथ सरदार जी दुकान के सामने खड़े थे उससे अंदाजा लग रहा था कि वह सैलानी नहीं हैं, इस शोरूम के मालिक हैं। लिहाजा मैं उनसे पूछ बैठा ‘आप यहीं रहते हैं।’ लेकिन सरदार जी ने कोई जवाब नहीं दिया। वह किसी बुत से खड़े थे। अलबत्ता कुछ दूर खड़ी एक महिला हमारे करीब जरूर आ गईं। वह भी उम्रदराज थीं। चेहरे पर भरपूर मुस्कुराहट के साथ मैंने उन्हें भी नमस्कार किया। लेकिन उन्होंने भी मेरे अभिवादन का कोई जवाब नहीं दिया। मुझे लगा कि शायद यह लोग हिंदी नहीं जानते। लिहाजा अति आत्मीयता जताते हुए मैंने महिला से पूछा ‘आप हिंदुस्तान से हैं…’
उनका जवाब अप्रत्याशित था ‘नहीं…’
मुझे ‘नहीं’ की उम्मीद नहीं थी। अचकचा कर पूछ बैठा ‘फिर कहां से…’
‘यहीं से…’ कुछ तल्ख लहजे में उन्होंने कहा
‘यहीं से…’ मैंने दोहराया
‘हां…’ कह कर उन्होंने छुट्टी पाई।
मेरे भारतीय होने का उन्होंने कोई नोटिस नहीं लिया। उन्होंने न कोई अपनत्व दिखाया, न ही मेरे प्रति कोई दिलचस्पी प्रकट की।
‘और आपके पूर्वज…’ संवाद कायम रखने की कोशिश करते हुए मैं पूछ ही बैठा।
‘जालंधर से…’ कहते हुए उन्होंने कंधे कुछ यूं उचकाए मानो मैंने उनकी तौहीन कर दी हो। जालंधर मैंने देखा नहीं था, लेकिन उनके जवाब से मैं जालंधर से एक नाता बना बैठा। मुझे अच्छा लगा विदेशी धरती पर किसी भारतीय का यूं अचानक मिलना।
‘अच्छा लगा जी… आपसे मिलकर… बहुत अच्छा लगा…’ गर्मजोशी दिखाते हुए मैंने कहा। विदेशी धरती पर एक भारतीय का बड़ा-सा शोरूम देखकर सरदार दंपति के प्रति मैं अपनत्व से भर गया था। ‘यह शोरूम आपका ही है…’ संवाद कायम करने की कोशिश को मैंने आगे बढ़ाया।
‘हां…’ कहते हुए महिला ने अपनी निगाहें मेरे चेहरे पर टिका दीं। उनकी नजरों में हिकारत का भाव साफ नजर आ रहा था। जबकि विदेशी धरती पर एक भारतीय के मिलने भर से मैं पुलकित था। अब तक मैं तय कर चुका था कि खरीददारी सरदार जी के शोरूम से ही करूंगा। लेकिन शोरूम में घुसने की मेरी उत्कंठा को सरदार दंपति ने पूरे तौर पर खारिज कर दिया था। उन्होंने यह जानने की भी कोशिश नहीं की कि मैं भारत के किस शहर से आया हूं।
‘परेश जी… जरा यहां आना…’ शर्मा जी की आवाज मेरे कानों से टकराई तो मैंने निगाहों से उन्हें तलाशा। तीन-चार दुकानों के बाद गली के आखिरी छोर की एक दुकान पर शर्मा जी मुझे नजर आए। मैं उनकी ओर बढ़ गया। वह हाथ में एक टी-शर्ट थामे खड़े थे। मेरे निकट पहुंचते ही वह बोले ‘सफारी में गर्मी लग रही है, सोच रहा हूं एक टी-शर्ट ही ले लूं…’
‘हां!… दो-तीन तो ले लीजिए… अभी तो पांच दिन और रहना है।’ कहते हुए मैंने महिला दुकानदार से पूछा ‘हाउ मच…’
‘वन फिफ्टी बाट…’ भूरी आंखों, भूरी रंगत, काले बालों वाली लड़की बोली।
मैंने हिसाब लगाया भारतीय करेंसी में तीन सौ… महंगी नहीं है। विदेश में खरीदारी करने का यह पहला अवसर था, लिहाजा मैं भी मोल भाव कर यह आजमाइश कर लेना चाहता था कि पसंदीदा सामान की कीमत कम करा लेने में मैं कितना हुनरमंद हूं। पसंदीदा सामान की अधिक कीमत चुकाने का मेरा तजुर्बा काफी तल्ख है, फिर यह तो विदेशी धरती है। ऐसा देश जो हमारी भाषा नहीं समझता और हम इनकी भाषा नहीं जानते। ‘हंड्रेड बाट…’ मैंने एक अंगुली उठाकर लड़की को अपनी बात समझाने की कोशिश की।
‘नो… वन फिफ्टी बाट…’ लड़की अपनी बताई कीमत पर टिकी रही।
‘नो… हंड्रेड बाट…’ मैंने जोर देकर कहा
‘नो… वन फिफ्टी बाट ओनली… एक रुपया भी कम नहीं… ऑरिजनल प्राइस टू हंड्रेड बाट… ले लीजिए यह प्राइस सिर्फ आपके लिए है… वन फिफ्टी बाट… थ्री हंड्रेड रुपीज ओनली… पसंद है आपके फ्रेंड को… अच्छी लगेगी फ्रेंड पर…’ यह कहते हुए लड़की शर्मा जी के सीने से टी-शर्ट लगा कर नाप दिखाने लगी। शक्ल सूरत से विदेशी लगने वाली लड़की हिंदी बोल रही थी। ठेठ हिन्दुस्तानी हिंदी…
लड़की को हिंदी बोलते देख मैं हैरान रह गया। एयरपोर्ट से होटल पहुंचने के बाद इन बयालीस घंटों में किसी विदेशी से अपनी भाषा में यह पहला संवाद था। एयरपोर्ट के वीजा स्टाफ से लेकर टैक्सी ड्राइवर जो हमें होटल ले गया था, होटल स्टाफ या फिर ‘अलीबाबा’ रेस्टोरेंट का स्टाफ, सबसे हमें अंग्रेजी में ही बात करनी पड़ी थी। इनमें भी अधिक संख्या ऐसे लोगों की थी जो पूरे तौर पर अंग्रेजी भी नहीं समझते थे। कई बार तो बोलने के साथ हमें इशारे से भी समझाना पड़ता था वाटर…, आमलेट…, मिल्क…। यह पहली बार था कि हमसे कोई हिंदी बोल रहा था। शर्मा जी जो अंग्रेजी बिल्कुल नहीं जानते थे, उनका हौसला भी लड़की को हिंदी में बात करते देख खुल गया था। वह अपने लिए कुछ और टी-शर्ट तलाशने लगे।
‘क्या नाम है आपका…’ मैंने उसे गौर से देखते हुए पूछा। नैन-नक्श और बालों की रंगत की वजह से मैं उसकी नागरिकता का अंदाजा नहीं लगा पा रहा था।
‘नर्गिस…’ नाम बताने के साथ ही उसने मेरी मंूछों की ओर इशारा करते हुए कहा ‘मुच्ची चाचा…’ यह कहने के साथ ही वह खिलखिला कर हंसने लगी।
उसके मुच्ची चाचा संबोधन पर मैं मुस्कुरा दिया। मेरी तुर्रेदार मूंछों की वजह से लोग मेरी तुलना अक्सर लोकप्रिय काॅमिक किरदार चाचा चौधरी या नत्थू लाल से करते हैं। लड़की के मुच्ची चाचा कहने पर मुस्कुराना लाजिमी था।
‘परेश…’ मैंने अपना नाम उसे बताया। शायद वह समझी नहीं।
‘मुच्ची चाचा…’ कहकर वह खिलखिलाने लगी। ‘इंडिया से…’ उसने पूछा।
‘हां…’ कहने के साथ ही मैंने अपना नाम उसे फिर बताया। जवाब में अप्रत्याशित तौर पर उसने दोहराया ‘प…रेश… अच्छा नाम है… मैं ठीक बोला ना… प…रेश…।’ बात करते-करते वह हमें टी-शर्ट भी दिखाती जा रही थी।
‘हां ठीक बोला, आपका नाम किसने रखा… नर्गिस…’ मैंने उसकी बातों में दिलचस्पी लेनी शुरू कर दी थी
‘मेरे डैड ने…’
एक विदेशी लड़की का नाम नर्गिस, मैंने अंदाजा लगाया मुस्लिम होगी। ‘कहां से हैं आप…’ मैंने पूछा
‘रशिया… रूस से…’
‘अच्छा नाम है नर्गिस… इसका मतलब पता है…’
‘हां… एक फूल होता है… एक एक्ट्रेस भी थी, इंडियन…, राज कपूर… और नर्गिस…। मेरे पापा की फेवरेट… नर्गिस…। आवारा…, मेरा नाम जोकर… देखी उन्होंने। गाने सुनाते थे मुझे… मेरा है जूता है जापानी… ए भाई जरा देख कर चलो… बच्ची थी तब से गाती हूं…’ नर्गिस अपनी ही रौ में बहे चली जा रही थी।
‘यह कैसी रहेगी…’ शर्मा जी ने एक टी-शर्ट सीने से लगाते हुए पूछा। मैं कुछ कहता उससे पहले ही नर्गिस बोल पड़ी ‘इसे पहनकर आप बिल्कुल राज कपूर लगेंगे… क्यों मुच्ची चाचा…’
अब हंसने की बारी हमारी थी। नर्गिस के इस अंदाज पर हमें भी हंसी आ गई। मैंने शर्मा जी का नर्गिस से परिचय कराया। उसने बेझिझक अपनी हथेली शर्मा जी की तरफ बढ़ा दी। शर्मा जी ने संकोच के साथ नर्गिस से हाथ मिलाया। उसके बाद उसकी हथेली मेरी ओर बढ़ी। गर्मजोशी उसके अंदाज में ही नहीं उसके हाथ मिलाने में भी महसूस हो रही थी।
नर्गिस की बेबाकी, बिंदासपन, अपनापन जताने का तरीका मुझे अखरने लगा। पता नहीं मुझे क्यों लगा कि वह यह अभिनय हम उम्रदराज लोगों को सामान बेचने की नीयत से कर रही है। अचानक उसने शर्मा जी का नाम दोहराते हुए कहा ‘रेगूनॉट शर्मा… ओके… यह भी देखिए…।’ एक बरमूडा उनकी कमर से नीचे लगाते हुए उसने कहा ‘अच्छा लगेगा आप पर रेगूनॉट जी… फोर हंड्रेड बाट…’
मैं उसके क्रियाकलाप पर नए सिरे से सोचने लगा। यह लड़की तो पूरी सौदागरनी है। हिंदी बोलकर… डायलॉग मारकर हमें फंसा रही है। पता नहीं क्या-क्या भेड़ेगी…? शर्मा जी के लगातार इनकार के बावजूद उसने हरे रंग की पसंद की गई एक टी-शर्ट शर्मा जी की सफारी कमीज के ऊपर ही पहना दी। फिर बादामी रंग का बरमूडा उनकी पेंट से लगा कर कहने लगी ‘अच्छा लगेगा आप पर… बिल्कुल राज कपूर… मेरा जूता है जापानी पतलून इंग्लिस्तानी…’
मैं नर्गिस की कलाकारी देख रहा था। वह हिंदी और राज कपूर के नाम पर हम हिंदुस्तानियों से धंधा कर रही थी। सीधे-सीधे भुना रही थी हिंदी और राज कपूर को। सरदार दंपति द्वारा बरती गई बेरुखी से पहुंची यातना से उबारने वाली नर्गिस का अब दूसरा ही रूप मुझे देखने को मिल रहा था। उसकी इस चेष्टा से मैं खुद को ठगा हुआ महसूस कर रहा था। हिंदी बोल कर वह हम दोनों को बेवकूफ बनाने जा रही थी। मैंने उसका हथियार उसी पर चलाने की नीयत से पूछा ‘कभी इंडिया गई हो?’ मेरा इरादा था कि दो-चार सवालों के बाद पसंद की गई तीनों शर्ट के दाम चुकाकर यहां से खिसक लेंगे वरना यह तो हम दोनों की जेब ही खाली करवा लेगी।
‘नहीं…’ उसने इनकार में सिर हिलाया। ‘जाना है… डिल्ली… आप डिल्ली से हैं…’ उल्टे उसने ही सवाल दाग दिया।
जवाब में मेरे ‘हां’ कहते ही नर्गिस ने एक बार फिर खिलखिला कर हंसना शुरू कर दिया। ‘मुच्ची चाचा… मुच्ची चाचा… फ्रॉम डिल्ली…’ कहते हुए वह हंसी से दोहरी हुई जा रही थी। उसके अचानक इस तरह से हंसने की कोई वजह मेरी समझ में नहीं आई। हंसने के साथ अब वह ताली बजा रही थी। शर्मा जी भी उसके परिहास का आनंद लेते हुए खिलखिला रहे थे। ‘मुच्ची चाचा… मुच्ची चाचा…’ का स्वर अचानक ऊंचा हो गया। तभी हमारे मित्रों में से एक चोपड़ा जी ने लगभग चीखते हुए हमें आगाह करते हुए कहा ‘क्या गजब कर रहे हैं शर्मा जी… यह लड़की रशियन है… माफिया होते हैं रशियन… रशियन माफिया हैं यह लोग… इनसे मत उलझिए…’ यह कहते हुए चोपड़ा जी सभी मित्रों के साथ हमारी ओर ऐसे लपके मानो हमने ऐसी कोई आफत मोल ले ली है, जिससे वही निपट सकते हैं।
चोपड़ा जी का कहा नर्गिस ने भी सुन लिया था। उसकी हंसी अचानक गायब हो गई। चेहरा भी सख्त हो गया। अचानक हुए इस घटनाक्रम ने मुझे भी झिंझोड़ कर रख दिया। मैं इस बात को लेकर असमंजस में था कि चोपड़ा जी ने नर्गिस और इसके देश पर जो टिप्पणी की थी, उसकी प्रतिक्रिया में वह अब क्या करेगी? यहां आने से पहले कई और मित्रों ने ताकीद किया था कि रशियन से सावधान रहना। मैं कभी नर्गिस को देखता कभी सरदार जी को। पता नहीं क्यों मुझे यह अंदेशा हो रहा था कि नर्गिस अब कोई बखेड़ा खड़ा करेगी। लफड़े की किसी भी सूरत में मेरी तमाम आस और उम्मीद सामने खड़े सरदारजी पर ही टिकी थी।
नर्गिस का कठोर पड़ता चेहरा और खुलती बंद होती मुट्ठियां संकेत दे रही थीं कि चोपड़ा जी का कहा उसे नागवार गुजरा था। चोपड़ा जी का कहा नागवार तो मुझे भी लगा था… ‘रशियन माफिया’। नर्गिस की खामोशी मुझे अखर रही थी। नर्गिस ने पतलून की जेब से सिगरेट और लाइटर निकाल कर एक सिगरेट सुलगाई और ढेर-सा धुआं चेहरे पर छोड़ दिया। मैं समझ गया वह आक्रामक हो रही है। लेकिन अगले ही पल वह खिलखिला कर हंसने लगी। दो कश और लगाकर उसने बूट से कुचलकर सिगरेट बुझा दी।
‘रशियन माफिया…’ कह कर उसने जोर से कहकहा लगाया। ‘मुच्ची चाचा आपका फ्रेंड फिल्में बहुत देखता… फिल्मों में दिखाता माफिया… मुच्ची चाचा आपने देखा रशियन माफिया…?’
उसके इस सवाल का मेरे पास कोई जवाब नहीं था। मैं उस से नजरें चुराने की कोशिश करने लगा।
‘देखना भी मत… हम और आप फ्रेंड… नर्गिस… मुच्ची चाचा… और… और रेगूनॉट…’
नर्गिस को खिलखिलाते देख मैंने राहत की सांस ली। मैंने पलट कर सरदार जी की तरफ देखा। वह और उनकी पत्नी अपनी जगह जड़वत खड़े थे… और मेरे सामने एक जीवंत लड़की खड़ी थी। मैं तय नहीं कर पा रहा था कि निश्चल हंसी वाली यह लड़की वास्तव में प्रेम की मिसाल थी या असल में एक सौदागरनी? बात आई-गई सी हो गई। मित्रों ने भी आकर कपड़े देखने, पसंद करने शुरू कर दिए।
‘मुच्ची चाचा आप लोग रुका किधर…’
‘ग्रैंड होटल…’ जवाब चोपड़ा जी ने दिया
‘कब तक रुकेगा…?’
‘सैटरडे मॉर्निंग की फ्लाइट है…’ चोपड़ा जी ने ही जवाब दिया।
मैंने गौर किया कि नर्गिस के हिंदी बोलने का किसी ने नोटिस नहीं लिया। मित्रों की इस उदासीनता से मेरे भीतर अपराधबोध पनपने लगा। जिसे यह लोग माफिया बता रहे थे, उसमें मेरे देश के प्रति आस्था और दिलचस्पी तो थी। एक सरदार जी हैं जिन्होंने भारतीय होने के बावजूद हमारे प्रति कोई अपनत्व प्रकट नहीं किया था। नर्गिस और सरदार जी के आचरण को लेकर मेरे भीतर एक द्वंद्व चलने लगा। सरदार दंपति की अनदेखी से मैंने अपने आप को नि:संदेह अपमानित महसूस किया था। सरदार दंपति के इस व्यवहार की मुझे कोई वजह समझ नहीं आ रही थी। पता नहीं क्या सोचकर मैं नर्गिस से सवाल कर बैठा ‘तुम्हें इंडियन कैसे लगते हैं…?’
कपड़े दिखाने में व्यस्त नर्गिस ने शायद मेरी बात नहीं सुनी थी। पता नहीं क्या सोचकर मैंने एक सवाल और कर डाला ‘अच्छा यह बताओ मुच्ची चाचा कैसे लगते हैं…?’ नर्गिस ने इस पर भी कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की। मुझे वह पक्की सौदागरनी की तरह ग्राहकों को पटाती नजर आ रही थी। मैं मन ही मन सोचने लगा कि मैंने भी क्या बचकाना सवाल पूछा इस लड़की से। जो कभी भारत नहीं गई और एक साधारण-सी दुकानदार है। नर्गिस अचानक अपनी एेड़ियों पर उचकी और मेरे कान पर चिल्ला कर बोली ‘अपने डैड जैसे… मुच्ची चाचा यू आर लाइक माई डैड… उनके बी ऐसा मूच होता…’
नर्गिस से मुझे यह उम्मीद नहीं थी कि वह ऐसा कोई जवाब देगी। पता नहीं क्यों मुझे ऐसा महसूस हुआ कि मैं विदेश में नहीं, अपने ही देश के किसी समुद्र तट के किनारे खड़ा हूं। काम के साथ-साथ बत्तीसी चमकाती नर्गिस बीच-बीच में एक नजर मुझ पर डालने के साथ एक हाथ से मूंछ मरोड़ने का भाव भी प्रकट करती जा रही थी। नर्गिस के सवाल ‘मुच्ची चाचा क्या सोचता…’ से मेरी तंद्रा भंग हुई। क्या सोच रहा था मैं…? कुछ तो सोच ही रहा था…। मैंने अपनी जेब टटोल कर दस रुपए का एक सिक्का निकाल कर नर्गिस की मुट्ठी में पकड़ा दिया।
‘क्या करता… क्या करता… मुच्ची चाचा… ये तुमारा क्वाइन इदर नई चलता…’ कहते हुए नर्गिस वह सिक्का मेरी शर्ट की जेब में रखने की कोशिश करने लगी तो मैंने कहा ‘अभी तुमने क्या बोला…’
‘क्या बोला… कुछ बी नई बोला…’
‘तुमने डैड बोला ना… तो तुम मुच्ची चाचा का क्या हुआ…?’
‘हमको नई पता…’
‘बुद्धू…’ पता नहीं यह शब्द मेरे मुंह से कैसे निकला। जिसे नर्गिस ने दोहराया ‘बुड्डू… बुड्डू बोले तो…’
नर्गिस के इस सवाल से मैं अचकचा गया। क्या कहूं कुछ समझ नहीं आ रहा था। चोपड़ा जी सहित कई सवालिया आंखें मुझे घूर रही थीं। ‘बुड्डू बोले तो बेटी… डॉटर… यू नो बेटी…डॉटर… हम इंडियन अपनी बेटी को देता…’ खुशी से ‘मुच्ची चाचा…’ चिल्लाते हुए नर्गिस सिक्का चूम कर अपने बटुवे में रखने के साथ मुझे भी आगोश में लेकर चूमने लगी। इस अप्रत्याशित हमले के लिए मैं तैयार नहीं था। अपने को मुक्त कराते हुए मैंने कहा ‘सरदार जी देख रहे हैं…’
‘वो… वो इंडियन की परवाह नई करता… कैता इंडियन आर बैगर्स… परचेज नई करता… बारगेनिंग ई करता…’
मेरे मुंह से सिर्फ ‘ओह…’ ही निकला। सरदार जी की बेरुखी और अभिवादन स्वीकार न करने की वजह मेरी समझ में आने लगी थी।
नर्गिस ने हम लोगों को उम्मीद से कहीं ज्यादा सामान भेड़ दिया था। मैं रास्ते भर हिसाब लगाता रहा। चार टी-शर्ट… दो बरमूडा शर्मा जी के… दो टी-शर्ट और दो बरमूडा मेरे… चार… तीन… दो… दो… तीन… चोपड़ा… जोशी… ग्यारह हजार सात सौ पचास बाट… यानी साढ़े तेईस हजार रुपए… सरदार जी की दुकान से लेते तो…?
हमारे ग्रुप लीडर चोपड़ा जी ने सुबह चार बजे ही सबको जगा कर सामान पैक कर पांच बजे तक होटल की लॉबी में पहुंचने का फरमान जारी किया था। काउंटर पर हिसाब चुकता कर हम सामान उठाकर चलने ही वाले थे कि लॉबी में पड़े एक सोफे से एक लड़की बिजली की गति से उठकर अचानक हमारे सामने आ खड़ी हुई। ‘मुच्ची चाचा… मुच्ची चाचा…’ कहते हुए उसने मुझे अपने आगोश में ले लिया। उसके हाथों में फूलों का एक गुलदस्ता था। उसने एक फूल निकाल कर मेरे हाथ में थमाया। सभी को गले लगा कर उसने एक-एक फूल दिया। एक फ्लाइंग किस उड़ाती हुई वह होटल से बाहर की ओर चल दी। अचानक रुकी, पलटी और बोली ‘मुच्ची चाचा नर्गिस माफिया नई… जल्दी आना… बेटी से मिलने… रेगूनॉट को बी लाना…’