इस बार स्वतंत्रता दिवस (15 अगस्त) समारोह जैसे राष्ट्रीय पर्व पर भी कोरोना महामारी की काली छाया रहेगी। जीवन के हर पहलू पर वार कर चुकी यह महामारी अभी और कितना संकट पैदा करेगी, कोई नहीं जानता। आर्थिक व्यवस्था को दोबारा पटरी पर लाने की जद्दोजहद के बीच केंद्र सरकार ने नये संसद भवन की हजारों करोड़ रुपये की परियोजना को मंजूरी दे डाली। प्रस्तावित परिसर को सेंट्रल विस्टा नाम दिया गया है। कोरोना महामारी संकट के दौरान इस परियोजना की जल्दबाजी पर सवाल उठाते हुए और संसद भवन के ढांचे में बदलाव के कुछ सुझावों के साथ इसके ऐतिहासिक महत्व पर प्रकाश डाल रहे हैं पूर्व संसदीय कार्य मंत्री पवन कुमार बंसल
इस साल अप्रैल माह में पूरा देश कोविड-19 से जूझ रहा था। समूचे देश के लोग लॉकडाउन में घरों में नजरबंद थे। आर्थिकी को खींचने वाला हरेक पहिया थमा हुआ था। अर्थव्यवस्था को पटरी पर वापस कैसे लाना है इसके लिए कोई माकूल हल हाथ में नहीं हो, ऐसे हालात में भी पर्यावरण मंत्रालय की विशेषज्ञ सलाहकार समिति आनन-फानन में 20000 करोड़ मूल्य वाली प्रस्तावित भव्य परियोजना को अनुमोदन देने के काम में जुटी हुई थी। वह है भारतीय संसद का प्रस्तावित नया भवन, नाम है सेंट्रल विस्टा। इस योजना के तहत एक नया केंद्रीय सचिवालय भी बनना है, जहां 70,000 केंद्र सरकार के कर्मचारी काम करेंगे। इस परिसर के अंदर प्रधानमंत्री के लिए एक आलीशान राजकीय घर-बनाम-दफ्तर होगा और उप राष्ट्रपति का आवास भी। यह अनुमोदन केवल अपने घरों में बैठकर अफसरों ने ऑनलाइन वार्ता के ज़रिए जल्दबाजी में दे डाला। इसमें विशेषज्ञ वास्तुकारों या और नगर नियोजकों की राय नदारद है, यह दर्शाता है कि सरकार ने इस परियोजना को कितनी ज्यादा तरजीह दे रखी है।
यह ठीक है कि वक्त के साथ कुछ बदलाव किए जाने आवश्यक होते हैं, लेकिन सरकार का यह कदम असामयिक और उतावलापन है। वित्तीय मजबूरियों के अलावा अफसोस इस बात का है कि इस परियोजना के कारण देश का अपनी ऐतिहासिक धरोहर और यादें ताजा करने वाले भवन से लगातार राब्ता टूट जाएगा।
ब्रिटिश संसद पैलेस ऑफ वेस्टमिंस्टर भवन से अपना काम चलाती है, इसका निर्माण 150 साल पहले आसपास की कई पुरानी इमारतों के हिस्सों का समावेश करके किया गया था, जो 1834 में लगी भीषण आग से किसी तरह बच गई थीं। जर्मनी के बर्लिन शहर में ‘द राइकस्टाग बिल्डिंग ‘ 1894 में बनी थी और 1990 में इसकी आंतरिक साज-सज्जा और मरम्मत दोबारा की गई थी। वाशिंगटन डीसी में अमेरिकी संसद की कैपिटॉल बिल्डिंग वर्ष 1800 में बनी थी। यह पुराने जमाने के भवन अपने-अपने देशों के इतिहास के साक्षी हैं।
महज़ इमारत नहीं है वर्तमान संसद भवन
इसी तरह भारतीय संसद भवन भी एक इमारत भर नहीं है। यह एक देश की शख्सियत का प्रतिनिधित्व करती है। हालांकि इसका निर्माण औपनिवेशिक काल में हुआ था, लेकिन संसद भवन, जैसा कि वर्तमान में हम इस नाम से जानते हैं, इसमें सर्वश्रेष्ठ भारतीय वास्तुशिल्प और परंपरा का प्रतिबिंब साफ झलकता है। इसका प्रारूप, ढांचा, दीवारों पर उकरे शास्त्रों से लिए गए श्लोक और भित्तिचित्र सदियों रहे भारतवर्ष के बिम्ब को प्रस्तुत करती हैं। यह हमारी इमारत, हमारे इतिहास का अंतरंग हिस्सा होने के अलावा राष्ट्रीय चिन्ह और भारत का संविधान बनने एवं विधान संबंधी ऐतिहासिक पलों की जीती-जागती गवाह है।
ऐतिहासिक पलों का गवाह है केंद्रीय कक्ष
नेपथ्य में रायसीना हिल्स पर बने नॉर्थ एवं साउथ ब्लॉक के परिदृश्य से सज्जित संसद भवन की दृश्यावली देखने वाले की आंखों को सम्मोहित कर देती है, लेकिन अब इनको तजकर संग्रहालय का रूप दिया जाएगा। लोकसभा और राज्यसभा के लिए अत्याधुनिक भवन बनाने के पीछे कारण यह बताया जा रहा है कि जब सांसदों की संख्या बढ़ जाती है तो यहां बने चैम्बरों की उपलब्धता कम हो जाती है, उनके लिए दफ्तर और सहायक स्टाफ के लिए कमरे भी कम पड़ जाते हैं। नए संसद परिसर की भव्य योजना की रूपरेखा के अनुसार आसपास के उन तमाम भवनों को गिराना है जो 1947 के बाद विभिन्न मंत्रालयों का काम चलाने के लिए बनाए गए थे। भले ही इन इमारतों को गिराने का काम आज की आधुनिक बारूदी तकनीक के ज़रिए चंद पलों में तमाम हो जाएगा लेकिन अति विशालकाय परिसर को बनाना और ठीक इसी दौरान अस्थायी दफ्तरों का इंतजाम करने के अलावा सभी रिकॉर्ड को स्थानांतरित करना कोई आसान काम नहीं होगा। आजादी से पहले, केंद्रीय संविधान सभा, राज्यों की समितियां और राज्यों के राजा तीन अलग-अलग उपभवनों में बैठकें किया करते थे, वर्तमान में इन प्रखंडों से क्रमशः लोकसभा, राज्यसभा और सांसदों के लिए वाचनालय का काम लिया जाता है। अर्धचंद्राकर और घोड़े की नाल की शक्ल में बने कक्षों से सटे अंदरूनी और बाहरी गलियारे बने हुए हैं। पहली मंजिल पर दर्शक दीर्घाएं हैं। संसद का केंद्रीय कक्ष वही ऐतिहासिक जगह है जहां भारत की संविधान सभा ने 9 दिसंबर 1946 को बैठक की थी, यह कक्ष देश के सबसे महत्वपूर्ण पलों यानी सत्ता हस्तांतरण और जवाहरलाल नेहरू के कालजयी भाषण ‘ट्रिस्ट विद डेस्टनी’ का भी गवाह है। संसद भवन की पहली मंजिल पर प्ररिक्रमा करता गलियारा खंभों की शृंखला के साथ एक भव्य और सम्मोहित दृश्यावली प्रस्तुत करता है। ये खंभे संसद भवन की अन्य वास्तु विशेषताओं के साथ सुर-ताल मिलाते प्रतीत होते हैं और गोलाकार संसद भवन को वास्तुकला का श्रेष्ठ नमूना बनाने के अलावा एक अनूठा दिलफरेब आकर्षण पेश करते हैं।
बाद वाले सालों में कुछ आधुनिक और सुरुचिपूर्ण भवन जैसे कि रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन, जवाहरलाल भवन और विज्ञान भवन बनाए गए थे, इसी तरह संसद भवन परिसर से लगी एक विस्तार इमारत यानी एनेक्सी भी जोड़ी गई थी। आधुनिक पुस्तकालय की बढ़ती जरूरतों को पूरा करने के लिए एक अलग इमारत वर्ष 2006 में बनाई गई थी, जिसके अंदर एक सुरुचिपूर्ण सुसज्जित भोजन कक्ष, पठन कक्ष और संसदीय अध्ययन एवं प्रशिक्षण केंद्र है। संसद भवन परिसर के अतिरिक्त नयी दिल्ली नगर निगम क्षेत्र में आती अनेक इमारतें हैं जहां से कई मंत्रालय अपना काम चलाते रहे हैं। इन सब को एक बहुत विशाल परिसर में एक जगह पर इकट्ठा करना न केवल लगभग असंभव है, बल्कि मैं ऐसा न करने का सुझाव भी दूंगा।
… तो ढांचे में नहीं करना पड़ेगा फेरबदल
रही बात लोकसभा और राज्यसभा में भावी चैम्बरों की मांग की तो केंद्रीय कक्ष को लोकसभा चैम्बर में बदला जा सकता है और वर्तमान लोकसभा वाली जगह को राज्यसभा के लिए दिया जा सकता है। इससे ढांचे में फेरदबल भी कम-से-कम करना पड़ेगा। परिसर में जिस जगह महात्मा गांधी का बुत है उसके पीछे खाली पड़ी भूमि पर एक नया केंद्रीय कक्ष और सांसदों के चैम्बर बनाए जा सकते हैं। संसद के मुख्य भवन में कुछ मंत्रियों के लाउंज हैं और इनके अधीन आते कम-से-कम 70 कमरे खाली हो सकते हैं, क्योंकि सालभर में लगभग 280 दिन यह वैसे भी बंद ही रहते हैं। उपरोक्त सुझावों से बदलावों पर होने वाला खर्च नई परियोजना के लिए रखे गए 20000 करोड़ रू की तुलना में अंशमात्र ही होगा।
3 मूर्ति भवन और 7 रेसकोर्स
यह बात समझ से परे हैं कि नयी योजना में एक अन्य ढका-छिपा उद्देश्य भी है, प्रधानमंत्री के लिए शानदार घर-बनाम-दफ्तर का प्रावधान। भारत के पहले प्रधानमंत्री के तौर पर जवाहरलाल नेहरू तीन मूर्ति भवन में रहे थे लेकिन उनके बाद प्रधानमंत्री का कोई स्थायी आधिकारिक निवास स्थान नहीं रहा है। राजीव गांधी ने 7 रेसकोर्स रोड का बंगला चुना था जो आज तक प्रधानमंत्री की सरकारी रिहाइश बना हुआ है, अब इस सड़क का नाम बदलकर लोक कल्याण मार्ग कर दिया गया है।
दरअसल इस निवास स्थान परिसर में पांच बंगले आते हैं, जिनमें दो प्रधानमंत्री के रहने के लिए हैं, तीसरे में मेहमान ठहराए जाते हैं, चौथा विशेष सुरक्षा दल के पास है तो पांचवा बतौर हैलीपैड इस्तेमाल होता है। इस सभी घरों को तरह बहुत शानदार नहीं कहा जा सकता है, हालांकि लुटियंस जोन के अन्य बंगलों की तरह इनकी चारदीवारी में बहुत खुली जगह और खूब संवारकर रखे गए विशाल लॉन हैं। बाद में प्रधानमंत्री आवास को विस्तार देते हुए दो कांफ्रेस हॉल और सफदरजंग हवाई अड्डे तक पहुंचती एक भूमिगत सुरंग जोड़ी गई है ताकि प्रधानमंत्री के काफिले से आम ट्रैफिक में विघ्न न पड़ने पाए। समय-समय पर की जाने वाली साज-सज्जा से प्रधानमंत्री आवास को पद की गरिमा के तकाजे के अनुसार नया रूप दिया जाता रहा है, बेशक यह बहुत ज्यादा शानो-शौकत वाला नहीं होता है। प्रधानमंत्री की बैठकों और मेहमान विदेशी राष्ट्राध्यक्षों के सम्मान में भोज के लिए भव्य हैदराबाद हाउस एकदम उपयुक्त स्थान है।
फिजूल खर्ची ही ज्यादा है
चाहे सेंट्रल विस्टा अपने आप कितनी भी शानदार और मनमोहक क्यों न बने, लेकिन 7, लोक कल्याण मार्ग को तजने की योजना बनाना और नए प्रधानमंत्री आवास पर गैरमामूली धन खर्चना, बिना सोच विचार किए फिजूल खर्च करने जैसा है। कुछ मामूली फेरबदल और साज-सज्जा के साथ समूचे साउथ ब्लॉक को बतौर प्रधानमंत्री कार्यालय बनाया जा सकता है और एक बार वित्त विभाग का नया कराधान भवन (रेवेन्यू बिल्डिंग) चालू होने के बाद नॉर्थ ब्लॉक में वक्त-वक्त पर किए सभी अस्थायी जुगाड़ों से मुक्ति मिल सकेगी और इस शानदार भवन को फिर से अपने मूल दिनों वाली अनछुई स्थिति में लौटाया जा सकेगा।
नये ढांचे की नहीं, दृढ़ संकल्प की ज़रूरत
शहरी मामलों के मंत्रालय के एक अधिकारी ने सेंट्रल विस्टा परियोजना की उपमा करते हेतु: ‘इसे नए भारत के मूल्यों एवं आकांक्षाओं का प्रतिनिधि बताया है यानी सुशासन, कार्य-क्षमता, पारदर्शिता, जिम्मेदारी एवं समता का बिम्ब और यह गुण भारतीय संस्कृति एवं सामाजिक वातावरण के मूल में रहे हैं। तुर्रा यह कि इस बार नये भारत की भावना को परिभाषित करने और इसको नये भव्य भवन के रूप में मूर्त आकार देने का काम सरकार ने अधिकारियों के जिम्मे छोड़ दिया है! उपरोक्त अधिकारी ने भले ही सारगर्भित तरीके से उक्त विचार को प्रस्तुत किया है, यह बात भली-भांति जानते हुए कि उक्त आदर्श लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रतिपादन के लिए देश को नये ईंट-पत्थर के ढांचे का इंतजार करने की जरूरत नहीं है, बस चाहिए तो दृढ़ संकल्प वाले लोग जिन्हें सरकार ने काम करने की पर्याप्त शक्ति दे रखी है।