बच्चे को किसी गलती के लिए कई बार हल्की-फुल्की समझ देनी जरूरी होती है ताकि वह अनुशासन में रहे। लेकिन अनुशासन का मकसद सुधार होना चाहिये, कोमल मन में डर पैदा करना हरगिज नहीं। इसी तरह बेहतर कार्य के लिए इनाम भी जरूरी है।
कृष्णलता यादव
पुरस्कार हो या दंड, दोनों का अपना महत्व है। मानव ही नहीं, बल्कि अन्य प्राणी भी इनसे प्रभावित होते हैं। जहां तक बाल जीवन का सम्बन्ध है, इनका प्रयोग बहुत सावधानी से किया जाना चाहिए। बड़ों को अपनी जिद और अहं को एक ओर रख ध्यान रखना होता है कि दंड अथवा पुरस्कार का स्वरूप हर हाल में संतुलित रहे, अन्यथा इच्छित उद्देश्य पूरा नहीं होता। दंड का उद्देश्य बालक के मन में दहशत या खौफ पैदा करना कतई नहीं होता। दंड वह उपचारात्मक विधान है जिससे कर्ता भविष्य में अपने कार्य के प्रति अधिक सावधान रहता है। वहीं पुरस्कार प्रेरक बनकर मनोबल बढ़ाता है, आत्मविश्वास जगाता है और पहचान बनाता है।
हल्की-फुल्की सजा
गलती किससे नहीं होती, फिर बच्चे तो बच्चे हैं। अनजाने ही नहीं, वे बहुत बार जान-बूझकर बड़ों को परेशान कर आनन्दित होते हैं। दिक्कत तब होती है जब ऐसी हरकतें बार-बार दोहराई जाती हैं। अब उनके प्रति रोष जताना ज़रूरी हो जाता है क्योंकि बुराई, बुराई ही है। वह बड़ी बुराई बने इससे पहले उसे दबा देना बनता है। चूंकि बालमन कोमल होता है और बालबुद्धि कच्चापन लिए होती है इसलिए दंड देने से पहले चिंतन-मनन अवश्य कर लेना चाहिए। ऐसा कदापि न हो कि छोटी गलती के लिए भारी-भरकम सजा दे दी जाए। ऐसी स्थिति में बच्चा उग्रता धारण कर सकता है या इतना गम्भीर हो सकता है कि बालसुलभ मासूमियत-चंचलता उससे दूर छिटक जाती है। दोनों ही स्थितियां असह्य हैं। कोई नहीं चाहता कि उसका बच्चा उग्र या बैरागी बने।
हौसला बढ़ाने में संकोच कैसा
गलती किए जाने पर बालक को प्यार- मनुहार से समझाया जाए। हो सकता है, आंख दिखाने या अबोला धारण करने मात्र से बात बन जाए। उसको यह अहसास करवाया जाए कि उसकी करनी से किसी को कितनी हानि-परेशानी हुई है। यदि बालक अपनी गलती स्वीकार कर भविष्य में ध्यान रखने की बात करता है तो उसे पुरस्कृत करने में ढील न बरती जाए। मीठी मुस्कान के साथ बोले गए शाबाश, गुड, वेरीगुड जैसे शब्द चमत्कार उत्पन्न किया करते हैं। तब अनायास ही कहा जाता है- हींग लगी न फिटकरी रंग भी आया चौखा। यूं भी यदि मिश्री से काम चलता हो तो पटोल देने का क्या लाभ।
कैसा हो इनाम
दंड नकार का, जबकि पुरस्कार सकार का हिमायती है। दंड के भय से अनुशासनबद्ध रहने की अपेक्षा प्रेम व विश्वास के बूते अनुशासन में रहना बेहतर है। यह कतई ज़रूरी नहीं कि पुरस्कार नकद राशि या कीमती वस्तु के रूप में दिया जाए। बच्चे को उसका मनपसंद खाना बनाकर खिलाना, आउटिंग पर ले जाना, औरों के सामने उसकी प्रशंसा करना आदि प्रभावी पुरस्कार हो सकते हैं। घर हो या विद्यालय, बालक को दण्डित या पुरस्कृत करते समय बाल मनोविज्ञान का ध्यान रखा जाना चाहिए, इसके लिए किसी विशेष दांव-पेच की आवश्यकता नहीं होती।