हालांकि, बुधवार को भारतीय रिजर्व बैंक के हस्तक्षेप व निर्यातकों द्वारा डॉलर की बिकवाली से गिरते रुपये की स्थिति में फौरी तौर पर सुधार आया है, लेकिन फिर भी गिरावट डॉलर के मुकाबले 80 के मनोवैज्ञानिक स्तर को छू चुकी है। निस्संदेह, यह गिरावट मंगलवार को सार्वकालिक निचले स्तर 80.06 पर रही थी। मगर बुधवार आते-आते डॉलर सूचकांक में कमजोरी, भारतीय शेयर बाजार में सुधार तथा निर्यातकों द्वारा डॉलर की बिकवाली से हालत सुधर पाये हैं। कह सकते हैं रुपये की गिरावट की असली वजह डॉलर की मजबूती है। वैसे तो रुपये की गिरावट निर्यात के लिये लाभदायक साबित हो सकती है, लेकिन भारत की चिंता यह है कि उसका आयात ज्यादा है और वो अधिक महंगा हो जायेगा। खासकर पेट्रोलियम पदार्थों का दो तिहाई से अधिक हिस्सा हम आयात करते हैं। दरअसल, कोरोना संकट से उबरती भारतीय अर्थव्यवस्था पर रूस-यूक्रेन युद्ध संकट से बाधित आपूर्ति शृंखला का खासा असर देखा गया है। वैसे पिछले एक साल में दुनिया की अन्य बड़ी मुद्राओं के मुकाबले डॉलर की मजबूती में बारह फीसदी की वृद्धि हुई है। हालांकि, आसन्न संकट को भांपते हुए आरबीआई ने पिछले दिनों रेपो रेट में वृद्धि की थी ताकि विदेशी निवेशक ज्यादा ब्याज मिलने से अपना पैसा भारत से न निकालें। दरअसल, अमेरिकी फेडरल रिजर्व बैंक अपनी ब्याज दर बढ़ाता रहा है, जिसके चलते विदेशी निवेशक भारत से डॉलर तेजी से निकालने लगे थे। अमेरिका में कोविड संकट के दौरान अधिक डॉलर छापे गये थे, जिसे वापस लाने के लिये अमेरिका में ब्याज की दर बढ़ाई जा रही है। जिसके चलते डॉलर वापस अमेरिका लौट रहा है। निस्संदेह, रुपये के मूल्य में गिरावट से हमारे आयात महंगे होंगे और देश के डॉलर भंडार में कमी आयेगी। वैसे ऐसा नहीं है कि डॉलर के मुकाबले केवल रुपया ही कमजोर हुआ है, दुनिया की सभी मुद्राएं डॉलर के मुकाबले कमजोर हो रही हैं। आर्थिक विशेषज्ञों का मानना है कि रुपये की गिरावट अपने अंतिम चरण में है, आगे इसमें सुधार होगा।
वैसे कुछ अर्थशास्त्रियों का मानना है कि भारत को इस गिरावट का लाभ अपना निर्यात बढ़ाकर उठाना चाहिए, जैसा विगत में चीन व बांग्लादेश ने अपनी मुद्राओं के अवमूल्यन करके निर्यात बढ़ाए थे। इससे उनके उत्पादन की दुनिया भर में खपत बढ़ी थी और अधिक विदेशी मुद्रा उन्हें हासिल हुई थी। लेकिन इसके साथ ही यह भी जरूरी है कि देश में तेजी से उद्योग धंधों के विकास को अपनी प्राथमिकता बनाकर निर्यात को बढ़ाएं। आर्थिक मामलों के जानकार रुपये की गिरावट को भारत के कुछ पड़ोसी देशों की बदहाली के कारक के रूप में नहीं देखते क्योंकि भारतीय घरेलू बाजार मजबूत है और अर्थव्यवस्था का आकार बड़ा है। वैसे माना जा रहा है कि विश्व आपूर्ति शृंखला में धनात्मक परिवर्तन, जिंसों के दाम में मजबूती व पेट्रोलियम पदार्थों के दामों में सुधार के बाद डॉलर में गिरावट आएगी। कयास लगाये जा रहे हैं कि वर्ष की दूसरी छमाही में देश में विदेशी मुद्रा के आगमन में तेजी आयेगी। साथ ही केंद्रीय बैंक के हस्तक्षेप से भी स्थिति में सुधार होगा। इस विश्वास की एक वजह यह भी है कि भारत का विदेशी मुद्रा भंडार संतोषजनक स्थिति में है। वैसे एक सकारात्मक पक्ष यह भी है कि भले ही रुपया डॉलर के मुकाबले कमजोर हुआ हो, लेकिन दूसरी ओर अन्य मजबूत मुद्राओं यूरो, पाउंड व येन के मुकाबले रुपये मजबूत हुआ है। इसके बावजूद भारत संकट को नये अवसर में बदल सकता है। खासकर देश का आईटी उद्योग इसे अपने लिये अवसर में बदले, जिसकी अमेरिकी बाजार में आईटी उद्योग में बड़ी भूमिका है, डॉलर की मजबूती से उनकी आय में खासी वृद्धि होगी। वहीं देश के दवा उद्योग को रुपये में गिरावट से नुकसान उठाना पड़ सकता हैं क्योंकि उद्योग कच्चा माल विदेश से मंगवाता है। वहीं निर्यात करने वाली देश की दिग्गज ऑटो कंपनियां फायदे में रहेंगी। इसी तरह रत्न-आभूषण, सिले-सिलाये वस्त्र निर्यात करने वाली कंपनियां इस अवसर का फायदा उठा सकती हैं।