वह चित्र व्यथित करता है जब लोकतंत्र में स्त्री की भागीदारी परंपराओं में बंधी नजर आती है। वास्तव में 21वीं सदी के भारत में पंचायतों में महिलाओं की भागीदारी व्यावहारिक रूप में नजर भी आनी चाहिए। यदि निर्वाचित महिला प्रतिनिधि के स्थान पर परिवार का कोई पुरुष सदस्य शपथ ले तो इसे लोकतंत्र की विडंबना ही कहा जायेगा। यह भी मान लिया जायेगा कि पितृसत्तात्मक व्यवस्था उसे अपना आकाश हासिल नहीं करने दे रही है। निस्संदेह, भारतीय समाज परंपराओं में विश्वास करता रहा है, लेकिन बदलते वक्त के साथ बदलाव प्रकृति का नियम भी है। ऐसे वक्त में जब सैकड़ों लोग किसी महिला को अपना प्रतिनिधि चुनते हैं तो उसकी सार्वजनिक जीवन में उपस्थिति नजर भी आनी चाहिए। ऐसी कि वह अधिकारियों पर जनता के काम करवाने के लिये दबाव बनाने की स्थिति में हो। निस्संदेह, उसकी भूमिका परिवार की दहलीज से निकलकर सार्वजनिक जीवन में होती है। वह तभी देश की छोटी संसद के उद्देश्य को साकार कर पायेगी, जब सहजता-सरलता से समाज से रूबरू हो पायेगी। जनता से खुला संवाद कर पायेगी और अधिकारियों पर जायज कार्यों के लिये दबाव बना पायेगी। निश्चित रूप से ऐसे चित्र, जिनमें पर्दानशीं स्त्री पद की शपथ लेते नजर आती हो, देश-दुनिया में अच्छा संदेश कदापि नहीं देंगे। यदि पुरुष महज अपनी सीट आरक्षित होने की वजह से लोकतंत्र में महिलाओं की भागीदारी की बात कर रहे हैं तो निश्चित रूप से इससे महिलाओं के अधिकार सार्थक नहीं होंगे। फिर पंचायत चुनावों में महिलाओं की भागीदारी का उद्देश्य भी निरर्थक ही साबित होगा।
यह प्रसंग परेशान करता है कि देश की प्रगतिशील राष्ट्रीय राजधानी की आबोहवा से तीन तरफ से जुड़ा हरियाणा बदलते समय के साथ क्यों कदमताल करने से परहेज कर रहा है। वह भी उस हरियाणा में जहां की बेटियां अंतरिक्ष से लेकर वैश्विक खेल स्पर्धाओं में नये मानक स्थापित कर रही हैं। यहां के परिवारों ने तमाम पौरुष प्रतीक माने जाने वाले खेलों मसलन कुश्ती और मुक्केबाजी स्पर्धाओं में बेटियों को उतारा है। वे दुनिया के तमाम मुकाबलों से सोने-चांदी के तमगों के साथ हरियाणा ही नहीं पूरे देश को गौरवान्वित कर रही हैं। कोई खेल नहीं जहां हरियाणवी बेटियां दमखम न दिखा रही हों। ऐसे में महिला पंचायत प्रतिनिधियों को परंपराओं में बांधना उनकी योग्यता व प्रतिभा को नकारने जैसा है। निस्संदेह, 21वीं सदी के भारत में जब सेना ने महिलाओं के लिये अपने दरवाजे खोल दिये हैं, हर क्षेत्र में महिलाओं की सशक्त भागीदारी है, तो अपने गांव में अपने लोगों के बीच तो कम से कम उसे अभिव्यक्त होने का अवसर मिले। इस तथ्य को स्वीकारते हुए कि महिलाएं लोकसेवा के कार्यों को अधिक संवेदनशीलता व ईमानदारी के साथ अंजाम दे सकती हैं। निस्संदेह, यदि छोटी संसद में महिलाओं की उपस्थिति, अभिव्यक्ति व सक्रियता सशक्त होती है तो बड़ी संसद में महिलाओं के आरक्षण का आधार भी मजबूत होगा। तब कोई न कह सकेगा कि महिलाओं का सार्वजनिक जीवन में प्रतिनिधित्व प्रतीकात्मक ही होता है। यह भी कि काम-काज तो घर के पुरुष ही चलाते हैं।