योगेन्द्र नाथ शर्मा ‘अरुण’
आज समाज जाने क्यों, भावना को भूल कर सिर्फ और सिर्फ ‘दिखावे’ के पीछे दौड़ रहा है। धार्मिक कार्य हो या सामाजिक आयोजन हो, सांस्कृतिक उत्सव हो या कोई राजनीतिक आयोजन हो, हर जगह दिखावा ही हमें मिलेगा। जरा किसी शादी में चले जाइए, आपको तड़क-भड़क ही मिलेगी और वहां ‘भावनाओं’ की पूछ करने वाला शायद ही कोई मिले?
एक समय था, जब पूजा-स्थलों आदि में लोग भक्ति की भावना से सराबोर होकर जाते थे, लेकिन आज तो वहां भी दिखावा ही प्रमुख हो गया लगता है। हमें जाने क्यों, दिखावे और तड़क-भड़क के बिना ईश्वर की पूजा का विश्वास ही नहीं होता। कोई भी आयोजन हो, हमें हर जगह दिखावा ही दिखावा मिलेगा। भावनाओं का लुप्त होते जाना सामान्य-सी बात होती जा रही है।
मस्तमौला कबीर ने तो खूब चेताया और कहा :-
‘आंखिन की करि कोठरि, पुतरी पलंग बिछाय।
पलकन की चिक डारी के, पिय को लेय रिझाय।’
तात्पर्य यह है कि भक्ति तो हृदय से होती है, बुद्धि से तो भक्ति हो ही नहीं सकती। कहा भी गया है :-
‘बुद्धि बांटती नित सखे,
प्रभु से करती दूर।
सच्चा मन का भाव हो,
दर्शन हों भरपूर।’
मुझे हाल ही में एक बेजोड़ वाकया पढ़ने को मिला है, जिसे मैं इसलिए आपसे साझा करना चाहता हूं कि आप भी भक्ति-भाव की सरलता और सहजता को समझ सकें और यह जान लें कि भावना दिखावा नहीं चाहती—
‘एक समय कथा-व्यास डोंगरे जी का जमाना था बनारस में और वहां का समाज उनका बहुत सम्मान करता था। वे चलते थे, तो एक काफिला उनके साथ चलता था। एक दिन वे ‘दुर्गा मंदिर’ से दर्शन करके निकले, तो उनकी दृष्टि एक कोने में बैठे ब्राह्मण पर पड़ी, जो भक्ति-भाव से ‘दुर्गा-स्तुति’ पढ़ रहा था।
डोंगरे जी उस ब्राह्मण के पास पहुंचे, जो पहनावे से ही निर्धन लग रहा था। डोंगरे जी ने उसको दक्षिणा के रूप में इक्कीस रुपये दिए और बताया कि वह दुर्गा-स्तुति का अशुद्ध पाठ कर रहा है। वंदना करके ब्राह्मण ने उनके चरण छुए और धन्यवाद किया। उनके जाने के बाद से वह सावधानीपूर्वक ‘दुर्गा-स्तुति’ का पाठ करने की कोशिश में लग गया।
उसी रात में विद्वान डोंगरे जी को तेज बुखार ने दबोच लिया। बनारस के बड़े-बड़े डाक्टर वहां पहुंच गए। बुखार नहीं उतरा। सुबह अचानक सवा चार बजे उठकर डोंगरे जी बैठ गए और उन्होंने अपने व्यक्तियों से तुरंत उन्हें दुर्गा माता के मंदिर में ले जाने की इच्छा प्रकट की ।
एक छोटी-मोटी भीड़ साथ लिये डोंगरे जी दुर्गा माता मंदिर पहुंचे, तो देखा कि वही निर्धन-सा ब्राह्मण अपने ठीहे पर बैठा ‘दुर्गा-स्तुति’ का पाठ कर रहा था। डोंगरे जी को सामने देखकर उसने उन्हें प्रणाम किया और बताया कि वह अब डोंगरे जी द्वारा बताई रीति के मुताबिक ही मां दुर्गा की स्तुति का पाठ कर रहा है।
वृद्ध कथा-व्यास डोंगरे जी ने अपना सिर इनकार में हिलाया और भावुक स्वर में बोले, ‘पंडित जी, आपको स्तुति पाठ की विधि बताना हमारी भूल थी। घर जाते ही तेज बुखार ने मुझे धर दबोचा। फिर साक्षात् भगवती दुर्गा ने स्वप्न में दर्शन दिए। वे बहुत क्रुद्ध थीं, मुझसे बोलीं कि ‘तू अपने काम से काम रखा कर। मंदिर पर हमारा वो निर्धन भक्त कितने प्रेम से पाठ किया करता था। तू व्यर्थ ही उस के दिमाग में ‘शुद्ध पाठ’ करने का झंझट डाल आया। अब उसका वह सहज भक्ति भाव लुप्त हो गया है। वो रुक-रुक कर, बड़ी ही सावधानीपूर्वक, मेरी स्तुति पढ़ रहा है। तू तुरंत उसके पास जा और उसे कह कि जैसे वह पहले मेरी स्तुति सहज भाव से पढ़ता था, बस वैसे ही भक्ति-भाव से स्तुति पढ़ा करे, दिखावा तो मुझे कतई अच्छा नहीं लगता रे पगले।’
इतना कहते-कहते डोंगरे जी के आंसू बह निकले। रुंधे हुए गले से वे बोले, ‘महाराज, उम्र बीत गयी, मां का पाठ करते-करते, लेकिन कभी मां की झलक नहीं दिखी। कोई पुराना पुण्य जागा था कि जिससे आपके दर्शन हुए और जिसके लिये जगत जननी मां को स्वयं आना पड़ा। आपको कुछ सिखाने की हमारी हैसियत ही नहीं है। आप जैसे पाठ करते रहे हो, वैसे ही करो। बस, आपसे एक ही विनती है कि जब भी आप मेरे सामने पड़ें, तो आशीर्वाद का हाथ इस मदांध मूढ़ डोंगरे के सिर पर रख देना। मुझे तो आज समझ में आया कि भक्त का सहज भाव ही प्रभु को प्रिय है!’
सच मानिए, इस प्रकरण ने मुझे तो हिलाकर रख दिया है। हम विद्वत्ता का, अपने धनधान्य और ऐश्वर्य का इतना घमण्ड करते हैं कि यह भी भूल जाते हैं कि जगत का पालनहार सिर्फ ‘भाव’ का भूखा है, दिखावे का नहीं। आइए, आज इतना तो संकल्प ले ही लें कि दिखावे से दूर सहज भाव से जीवन जीएंगे और घमंड के गुब्बारे में कभी उड़ने की कोशिश नहीं करेंगे।