शमीम शर्मा
राजनीतिक पार्टियों के कार्यकर्ता पवनपुत्र से कम नहीं होते, जिन्होंने अपने स्वामी की खातिर लंका स्वाह कर दी थी। कार्यकर्ता भी विरोधी पार्टियों के झंडे-झंडी स्वाह करते पल नहीं लगाते। जहां का पीयेंगे पाणी, वहीं की बोलेंगे वाणी। दरअसल, ये सारे हैं एक तवे की रोटी, क्या पतली क्या मोटी। जिस तरह गलियों में खेलते-कूदते बच्चों को देखकर प्ले स्कूल वाले सोचते हैं कि ये हमारे यहां दाखिला लेने आ जायें, उसी प्रकार 18 साल से ऊपर वाले नवयुवकों को सभी राजनीतिक पार्टियां ललचाई निगाहों से देखती हैं कि ये हमारे कार्यकर्ता बन जायें और वोट बटोरने में सहयोग करें। वह भी एक वक्त था जब बूथ कैप्चरिंग का काम भी इन्हीं के कन्धों पर हुआ करता।
एक बात तो है कि कार्यकर्ता अब जागरूक हो गये हैं। अब उनकी समझ में आ गया है कि अपना काम-धंधा छोड़कर जिनके लिये रात-दिन एक किया, नारे लगा-लगा कर कंठ सुखा लिये, लू के थपेड़े खाये, अड़ोस-पड़ोस से बैर बांधा, चुनाव के बाद उनके दर्शन ही दुर्लभ हो जाते हैं। सब जानते हैं कि हर दिन अपने पांवोें के नीचे चींटियों को कुचलने वाला आदमी भी चींटियों के बिलों पर आटा-दलिया डालकर अपने पाप धोने की कोशिश करता है। पर कीड़नाल इन लोगों की चतुराई से वाकिफ हो चुकी है। उसे पता है कि अचानक जिमाने वाले की मंशा क्या है।
काले धन के कीचड़ में धंसे जिन नेताओं को कोर्ट बेनकाब करती है, उन्हीं नेताओं के साथ कार्यकर्ता कीच स्नान कर स्वयं को धन्य मानते हैं। हिन्दुस्तान में चुनाव हों और लोग लट्ठ न बजायें, ये हो नहीं सकता। एक कार्यकर्ता ने अपने नेता को विश्वास दिलाते हुए कहा कि जब तक जीवित हूं साथ निभाऊंगा, जहां बुलाओगे आऊंगा और अगर न आ पाया तो समझ लेना- लुगाई नहीं आण दे री।
सारे कार्यकर्ता बेबात की चिंता में घुले जा रहे हैं कि उनका नेता जीतेगा या हारेगा? पर गांववासी गर्मी की भयावहता देखकर इस सोच में है कि जोहड़ मैं तैं भैंस क्यूंकर काढूं?
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एक बर की बात है अक बाबा सुरजानाथ नैं किसी घर मैं आटा मांगण खात्तर रुक्का मार्या। उसनैं देख्या अक सारा घर भूंडी ढाल खिंड्या पडया है। कितै बर्तन-कास्सन पड़े, कितै मैले-कुचैले लत्ते पड़े, कितै चप्पल जूते। फेर एक बेसूहरी सी लुगाई बाहर आई अर बोल्ली- न्यूं आटा मांगता हांडै सै, ईब तक घर क्यूं नीं बसा लिया? मोड्डा बोल्या- सुथरा घर कदे बस्या ना अर तेरे बरगा घर बसाण नैं जी कोनीं करै।