आंध्र प्रदेश के बिक्किना पूर्णा श्रीचैतन्य में एक प्रगतिशील किसान हैं जिन्होंने अपनी पांच एकड़ भूमि पर गुणवत्ता पूर्ण नर्सरी प्रबंधन का कौशल विकसित किया है। नतीजतन, अब वे अपने ग्रीनहाउस में आम, काजू और अमरूद की कलमें विकसित कर ऊंचा शुद्ध मुनाफा बना रहे हैं। इसी तरह पंजाब के एक किसान धनदीप सिंह हैं जिन्होंने बाजार के हिसाब से अपनी लहसुन और मटर की फसल पैक करने की विधा विकसित कर ली है। इस किस्म के मूल्य-संवर्धन उपायों ने कृषि आय बढ़ाने में मदद की है। इन दोनों की भांति महाराष्ट्र की महिला कृषक डी मनेम्मा हैं जिन्होंने अपने खेत में पैदा होने वाले मोटे अनाज का मूल्य संवर्धन किया है। परिणामस्वरूप, खाने को झटपट तैयार बाजरा उत्पादों की बदौलत न केवल उनकी आय में बढ़ोतरी हुई है बल्कि स्वास्थ्य के लिए लाभदायक मोटे अनाज की उपयोगिता के बारे में भी जागरूकता फैलती है।
उक्त सभी सफलता की कहानियों में साझा बिंदु के तौर पर राज्य सरकारों की मदद से भारत सरकार के किए यत्न हैं, जिससे एक जीवंत कृषि-अर्थतंत्र बनता है और यह आगे कार्यकुशल कृषि कार्यबल बनाता है। यहां पर ग्रामीण युवा व कार्य-कौशल प्रशिक्षण कार्यक्रम एक अन्य महत्वपूर्ण अवयव है। देशभर में कृषि विस्तार उप-मुहिम योजना (सब-मिशन ऑन एग्रीकल्चर एक्सटेंशन) के अंतर्गत स्थानीय कृषि विज्ञान केंद्रों की सहायता से 700 से ज्यादा ऐसे केंद्र चल रहे हैं। इनका उद्देश्य है किसानों में यथेष्ट तकनीक इस्तेमाल के बारे में जागरूकता पैदा करना और कृषि-आधारित व्यावसायिक कौशल प्रदान करना। भारतीय कृषि कौशल परिषद इस किस्म की पहल को अपने कृषि कौशल ज्ञान भंडार और योग्यता आधारित साझा मानकों से सुसज्जित करती है।
इस संदर्भ में, कौशल विकास एवं नव उद्यमी राष्ट्रीय नीति-2015 में भी यह माना गया है कि कृषि और इससे संबंधित व्यवसायों पर, परोक्ष या अपरोक्ष रूप से, निर्भर कुल जनसंख्या के 40 फीसदी से अधिक कृषि कार्यबल का कौशल विकास करने हेतु तेजी से यत्न करना अति महत्वपूर्ण है। इस योजना रणनीति में कौशल-ज्ञान के बीच व्याप्त अंतर का आकलन, कृषि कौशल क्षेत्र की पहचान करना, प्रशिक्षु कृषक और भूमि-मजदूर की शिनाख्त, परस्पर-क्रिया अनुखंड विकास और आखिरी छोर पर उपलब्ध प्रशिक्षण कार्यक्रम का आयोजन करना इत्यादि उपाय शामिल हैं।
देश का फल उत्पादन 33.46 करोड़ टन छू गया है (जिसकी मात्रा खाद्यान्न से अधिक है) इसलिए उच्च-मूल्य वाले किंतु जल्द खराब होने वाले उत्पाद जैसे कि फल और सब्जियां मंडी तक पहुंचाने के दौरान बचाए रखने की जरूरत बहुत अधिक है।
इसलिए विशेषज्ञों का मानना है कि हमें सुरक्षित बंद वातावरण (पॉलीहाउस इत्यादि) और खुले खेतों में उगाई जाने वाली विधि, वर्टिकल फार्मिंग और शीत-भंडारण की कृषि-सहूलियतें विकसित करने की ओर पूरा ध्यान केंद्रित करना चाहिए। इस काम के लिए कटाई-तुड़ाई उपरांत पैकिंग-गृह बनाने होंगे, जहां पर सुखाने, छंटाई, चुगाई, पकाने, वैक्सिंग, पैकेजिंग और सबसे महत्वपूर्ण अवयव यानी गुणवत्ता नियंत्रण मूल्यांकन करने जैसी विधाएं आती हैं। इसमें फसल विशेष के मुताबिक प्री-कूलिंग, वातानुकूलित परिवहन और गंतव्य स्थल पर शीत भंडारण-आवंटन केंद्र भी शामिल हैं। लघु और हाशिए पर आने वाले किसानों में कई मर्तबा विभिन्न खरीदारों की गुणवत्ता आवश्यकताओं के मुताबिक उत्पाद तैयार करने के लिए जरूरी कौशल का अभाव होता है, न ही उन्हें पड़ोस की या सूबे की अन्य मंडियों अथवा निर्यात बाजार के बारे में ज्यादा जानकारी होती है। कौशल विकास से ऐसे किसानों को खेत में ही उत्पाद का माकूल कीमत पाने की संभावना बन जाती है, इससे खेती पर गुजर-बसर न होने के कारण शहरों की ओर पलायन की मजबूरी थम सकेगी।
इसी तरह वक्त की जरूरत है कि कृषक और किसान उत्पादक संगठनों का कौशल विकास किया जाए, जिससे कि कटाई-तुड़ाई उपरांत जल्द खराब होने वाले उत्पादों को बचाने संबंधी जागरूकता बढ़ेगी। इस बाबत, केंद्रीय क्षेत्रीय योजना के अंतर्गत 10000 किसान उत्पादक संगठन बनाकर देशभर में लघु और हाशिये पर आने वाले किसानों की आर्थिकी में सुधार करने का लक्ष्य है। इसलिए सटीक-खेती, व्यापार नीति, मूल और उच्चतर मूल्यसंवर्धन द्वारा उत्पाद की कीमत में बढ़ोतरी करना और अपने ब्रांड के तहत उत्पाद बेचने का काफी महत्व है।
ग्रामीण क्षेत्र की महिलाओं का भारत की कुल खाद्यान्न पैदावार में लगभग 60-80 फीसदी योगदान है और डेरी उत्पादों में 90 प्रतिशत श्रम है। विशेषज्ञों का मत है कि एक कौशल युक्त महिला किसान बनने में उसे जिन मुश्किलों का सामना करना पड़ता है, वह भौगोलिकता और स्थानीय हालात के अनुसार अलग-अलग हैं।
दरअसल, महिला कृषक की पहुंच उच्च-गुणवत्ता वाले बीज-खाद इत्यादि मूल अवयवों के अलावा उपकरण, तकनीक और जरूरी पैकिंग विधि, जमीन का उचित प्रयोग आदि तक बहुत कम है। दूसरी विकटता है, कई बार भूमि की मल्कियत उनके नाम पर न होने से उसे रेहन रखकर कर्ज या उधार लेने में दिक्कत होती है। तीसरी, महिला किसान को उत्पाद मंडियों तक ले जाने और बेचने इत्यादि में जिस किस्म की आजादी की जरूरत पड़ती है, वह नहीं मिल पाती, न ही उनकी पहुंच बुनियादी ढांचे, सूचना और नेटवर्क तक अधिक है।
संयुक्त राष्ट्र का ‘योजना दिशा’ नामक कार्यक्रम दिल्ली, हरियाणा, कर्नाटक, महाराष्ट्र और तेलंगाना में शुरू किया गया है। इसका उद्देश्य ग्रामीण मंडियों में महिलाओं की मौजूदा न्यून भागीदारी का हल निकालना और महिला नीत संस्थानों की निजी क्षेत्र की संगठित मंडी तक पहुंच बनाने में आने वाली दिक्कतों को दूर करना है। यह योजना स्रोत प्राप्ति और व्यापार प्रबंधन बनाने में मदद करती है। उम्मीद है प्रशिक्षण के बाद महिला किसानों में खरीदार के मानकों और गुणवत्ता संबंधी जरूरतों के मुताबिक फसल पैदा करना, पैकिंग केंद्र प्रबंधन, समन्वित परिवहन, बाजार भाव का आकलन, स्टॉक बनाना और किसान विकास संगठन चलाने के गुण विकसित हो पाएंगे।
इसके लिए सबको साथ लेकर चलने वाला कृषि कार्यबल बनाने के लिए खेतों में निरंतर कौशल संवर्धन करते रहने की जरूरत है। ताकि मानव श्रम शक्ति, आपूर्ति शृंखला की कड़ियां घट सकें और इस तरह माल ढुलाई का खर्चा कम हो पाए। इन नई तकनीकों में किसान ड्रोन, जियो-टैगिंग, रिमोट सेंसिंग, इलेक्ट्रॉनिक ट्रेडिंग, डिजिटल पेमेंट इत्यादि शामिल हैं।
कृषि कार्यबल के कौशल युक्त होने से खेत में प्रबंधन के मौजूदा तौर-तरीके सुदृढ़ होकर ‘स्मार्ट’ बन सकेंगे। तकनीकी उन्नति से मौसम में बदलाव, भूमि उर्वरता ह्रास, कीट रोधक, जल की कमी और मजदूर उपलब्धता इत्यादि की मुश्किलें दूर हो पाएंगी।
केंद्र और राज्य सरकारों के प्रशिक्षण संस्थानों में उपलब्ध कृषि कौशल-शिक्षा स्रोतों को फूलों की खेती से जोड़ देना और भी लाभदायक होगा। कृषि-उद्योगों की उत्पाद विशेष की जरूरतों के हिसाब से खेत में वास्तविक समय में काम करते हुए सिखाने वाले विशेष कोर्स बनाना काफी महत्वपूर्ण है। इस काम में हिंद-इस्राइल और नीदरलैंड सहयोग ढांचे के अंतर्गत सूबों में बनाए गए 40 से अधिक सेंटर ऑफ एक्सीलेंस केंद्रों के जरिए नवीनतम तकनीकों से उच्च-मूल्य फसल संवर्धन और फूलों की खेती को बढ़ावा मिल सकता है।
लेखक भारत के कृषि मंत्रालय एवं
किसान कल्याण विभाग में अतिरिक्त सचिव हैं।