कुछ लोग कहते हैं। लेकिन क्यों कहते हैं, वे भी नहीं जानते। कहना उनकी आदत है। कहना उनकी बीमारी है। नहीं कहेंगे तो उनका दो वक्त का खाना हजम नहीं होगा। ज़ुबान में अटकाहट-सी महसूस होगी। पेट में किसिम-किसिम की मरोड़ें पैदा होंगी।
किसी को कुछ भी कह देना हम भारतीयों की जन्मजात फितरत रही है। चाहे सामने वाले से मतलब हो या न हो फिर भी उसके बारे में हम कुछ भी कहने की छूट ले ही लेते हैं। और, किसी के बुरा मानने की तो हम परवाह ही नहीं करते। परवाह करने लगे तो जमीर टोकेगा कि क्या हो गया है तुम्हें!
वैसे, लोगों के कुछ भी कहने पर एक शोध अवश्य होना चाहिए। आखिर पता तो लगे कि लोग क्यों कुछ भी कह देते हैं। दरअसल, कहने वालों में सबसे बड़ी तादाद पढ़े-लिखे लोगों की होती है। मानते हैं कि वो कुछ भी कहने के लिए स्वतंत्र है। अच्छा देखेगी तो कुछ कहेगी। खराब देखेगी तो कुछ कहेगी। गंदा देखेगी तो कुछ कहेगी। महसूस करेगी तो कुछ कहेगी। मतलबndash;उसे हर वक्त कुछ न कुछ कहना ही है। कहने को वो अपनी शान समझती है। कभी खामोश नहीं रहती। उसके आगे तो प्रायः कैंची भी फेल हो जाया करती है।
लेखक लोग अपनी किताबें मुझे भेजते हैं। फिर कहते हैं कि मैं उन पर कुछ कहूं। जब कुछ नहीं कहता तो बुरा मान जाते हैं। मुझे मनघुन्ना तक साबित कर देते हैं। तब भी मैं उनसे कुछ नहीं कहता। सोचता हूं कि क्या कहूं? कहने वालों की भीड़ में एक शख्स ऐसा भी तो होना चाहिए जो कुछ न कहे, कहने वालों को और कहने वालों की सिर्फ सुने। किंतु लोग हैं कि बुरा मान लेते हैं।
यू नो, लोगों के पास बहुत समय है लेकिन दूसरों के लिए नहीं, आपस में मिलने-जुलने और बतियाने के लिए नहीं; कुछ भी किसी को भी कहने और लंबी-लंबी बेतुकी चर्चाओं के लिए। कुछ भी कहने के मामले में सोशल मीडिया का हाल सबसे बुरा है। किसी के पन्ने या दीवार पर जैसे ही दस्तक दीजिए, कुछ न कुछ आड़ा-तिरछा कहता हुआ ही मिलेगा। यहां लोग सार्थक बहुत कम लिखते या कहते हैं, ज्यादातर सिर्फ खुन्नस निकालते हैं। वे इसी में खुश हैं। उन्हें लगता है कि ऐसा कर वे बहुत महान काम कर रहे हैं।
कहना मगर कुछ भी कहना दुनियाभर में एक लाइलाज बीमारी-सी बनती जा रही है। ज़ुबान कैंची से अधिक खतरनाक हो चली है। दिल फरेबी हो गए हैं। आंखें शातिरता का पैमाना बन गई हैं। मन कुटिलता में तब्दील होते जा रहे हैं। भावना, संवेदना, सहनशीलता, इंसानियत की बातें किताबों में ही सिमट कर रह गई हैं। अच्छा और मीठा कहते-बोलते लोग कम मिलते हैं। तरह-तरह के उपदेश, प्रवचन और ज्ञान हर किसी के पास बहुत है मगर व्हाट्सएप के स्टेटस पर चढ़ाने के लिए ही।
कम बोलते लोग मुझे भाते हैं। उनसे ही बोलना मुझे अच्छा भी लगता है। उनके बीच जाकर मुझे सुकून मिलता है। इसीलिए मैं भी कम ही कहता और बोलता हूं ताकि फिजा में प्रदूषित शब्दों का जहर कम घुले सके।