तीस जून की रात मणिपुर के नोनी जिले के रेलवे निर्माण स्थल पर कहर बनकर आई। एक समूचा पहाड़ टूट कर कोई 300 फुट नीचे गिरा और पूर्वोत्तर राज्यों को अािसयान देशों से सीधे जोड़ने के इरादे से बन रही 111 किलोमीटर रेल लाइन के जरीबार-तुपुल निर्माण कैंप को निगल गया। मरने वालों में एक दर्जन से अधिक सेना के जवान हैं, कुछ रेलवे के कर्मचारी व निर्माण कंपनी के इंजीनियर व स्थानीय नागरिक हैं। यह किसी से छुपा नहीं है कि मणिपुर के लोग इस परियोजना से खुश नहीं हैं। इसके कारण वहां जमकर जंगल तो कटे ही, हिमालय रेंज के नये पहाड़ों के बेतरतीब काटने के संभावित खतरों पर कोई अध्ययन भी नहीं हुआ। सनद रहे सन् 2014 से 2020 के बीच मणिपुर में भूस्खलन की 20 बड़ी घटनाएं हुई हैं। असल में समूचा पूर्वोत्तर एक तरफ हिमालय पर्वतमाला से आच्छादित है तो उसकी भूमि ब्रह्मपुत्र-बराक नदी तंत्र से बहकर आई मिट्टी से निर्मित है। वहां की नदी धारा या नदी में जल आगम मार्ग में थोड़ा भी व्यवधान होता है तो बड़ी प्राकृतिक आपदा आती है।
जिस जगह पर यह भयावह हादसा हुआ, वहां पहाड़ों से नीचे उतर कर इजेई नदी आती है। यह इरांग नदी की सहायक है और नगा बहुल जिलों—सेनापति, तमेंगलांग और नाने में बहती है और यहां के लोगों के जीवन का आधार है। यह नदी आगे चलकर बराक में मिल जाती है। लगातार निर्माण, सुरंग बनाने के लिए भारी मशीनों के इस्तेमाल से इस नदी के नैसर्गिक जल प्रवाह में व्यवधान आया और इसी के चलते घाटी पर मिट्टी की पकड़ कमजोर हुई, जिसके आंचल तले रेलवे स्टेशन निर्माण का कैंप लगा था। वैसे भी बीते एक महीने के दौरान कई बार ऐसा हुआ कि त्रिपुरा, मिजोरम, मणिपुर और दक्षिणी असम का बड़ा हिस्सा देश से सड़क मार्ग से पूरी तरह कटा रहा, क्योंकि राष्ट्रीय राजमार्ग-6, मेघालय के पूर्वी जयंतियां जिले में जमीन कटाव से पूरी तरह नष्ट हो गया था। वहां एक बार सड़क ठीक की गई और 24 घंटे में दूसरी बार फिर पहाड़ कट कर सड़क पर आ गया। सोनापुर सुरंग लुम-श्योन के पास बंद हो गई। नगालैंड में नोकलाम जिले में कई गांव ही गायब हो गए।
भूस्खलन और नदी के किनारे मिट्टी का कटाव पूर्वोत्तर राज्यों के लिए भयानक है। सदियों-सदियों पहले नदियों के साथ बह कर आई मिट्टी से निर्मित असम राज्य अब इन्ही व्यापक जल शृंखलाआंे के जाल में फंस कर बाढ़ व भूमि कटाव के शाप से ग्रस्त है। ब्रह्मपुत्र और बराक व उनकी कोई 50 सहायक नदियों का द्रुत बहाव पूर्वोत्तर भारत में अपने किनारों के बस्तियों-खेतों को जिस तरह उजाड़ रहा है, उससे राज्य में कई तरह के सामाजिक-कानून-व्यवस्था और आर्थिक विग्रह जन्म ले रहे हैं। बरसात होते ही कहीं तेज धार जमीन को खा रही है तो कहीं धार के दबाव से पहाड़ कट रहे हैं।
राष्ट्रीय बाढ़ आयोग के आंकड़े बताते हैं कि पूर्वोत्तर राज्यों में हर साल बाढ़ का दायरा विस्तारित हो रहा है और इसमें सर्वाधिक खतरनाक है नदियों द्वारा अपने ही तटों को खा जाना। गत छह दशक के दौरान अकेले असम राज्य की 4.27 लाख हेक्टेयर जमीन कट कर पानी में बह चुकी है जो कि राज्य के कुल क्षेत्रफल का 7.40 प्रतिशत है। हर साल औसतन आठ हजार हेक्टेयर जमीन नदियों के तेज बहाव में कट रही है। यह सभी जानते हैं कि पूर्वोत्तर के आठों राज्यों का जीवन, लोक, अर्थव्यवस्था ब्रह्मपुत्र नद व उसकी सखा-सहेलियों की अठखेलियों पर निर्भर है।
वर्ष 1912-28 के दौरान जब ब्रह्मपुत्र नदी का अध्ययन किया था तो यह कोई 3870 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र से गुजरती थी। सन् 2006 में किए गए इसी तरह के अध्ययन से पता चला कि नदी का भूमि छूने का क्षेत्र 57 प्रतिशत बढ़ कर 6080 वर्ग किलोमीटर हो गया। वैसे तो नदी की औसत चौड़ाई 5.46 किलोमीटर है लेकिन कटाव के चलते कई जगह ब्रह्मपुत्र का पाट 15 किलोमीटर तक चौड़ा हो गया है। अकेले सन् 2010 से 2015 के बीच नदी के बहाव में 880 गांव पूरी तरह बह गए, जबकि 67 गांव आंशिक रूप से प्रभावित हुए। ऐसे गांवों का भविष्य अधिकतम दस साल आंका गया है। वैसे असम की लगभग 25 लाख आबादी ऐसे गांवों में रहती है जहां हर साल नदी उनके घर के करीब आ रही है। ऐसे इलाकों को यहां ‘चार’ कहते हैं। इनमें से कई नदियों के बीच के द्वीप भी हैं। हर बार ‘चार’ के संकट, जमीन का कटाव रोकना, मुआवजा , पुनर्वास चुनावी मुद्दा भी होते हैं लेकिन यहां बसने वाले किस तरह उपेक्षित हैं इसकी बानगी यहां का साक्षरता आंकड़ा है जो कि महज 19 फीसदी है। यहां की आबादी का 67 प्रतिशत गरीबी रेखा से नीचे है। तिनसुखिया से धुबरी तक नदी के किनारे जमीन कटाव, घर-खेत की बर्बादी, विस्थापन, गरीबी और अनिश्िचतता की बेहद दयनीय तस्वीर है। कहीं लोगों के पास जमीन के कागजात हैं तो जमीन नहीं, कहीं बाढ़-कटाव में उनके दस्तावेज बह गए और वे नागरिकता रजिस्टर में ‘डी’ श्रेणी में आ गए। इसके चलते आपसी विवाद, सामाजिक टकराव भी गहरे तक दर्द दे रहा है। सन् 2019 में संसद में एक प्रश्न के उत्तर में जल संसाधन राज्य मंत्री रतनलाल कटारिया ने जानकारी दी थी कि अभी तक राज्य में 86536 लोग कटाव के चलते भूमिहीन हो गए।
यह ध्यान रखना होगा कि जलवायु परिवर्तन का सबसे अधिक प्रभाव पूर्वोत्तर राज्यों पर है। सदियों तक दुनिया में सर्वाधिक बरसात के कारण प्रसिद्ध और फिर कम बरसात के कारण दशकों तक बदनाम हो गए चेरापूंजी में इस साल दो दिन ने ही बरसात के सारे रिकार्ड तोड़ दिए।
इसमें कोई शक नहीं कि पूर्वोत्तर की भौगोलिक स्थिति जटिल है। चीन ने तो ब्रह्मपुत्र पर कई विशाल बांध बनाए हैं। इन बांधों में जब कभी जल का भराव पर्याप्त हो जाता है, पानी को अनियमित तरीके से छोड़ दिया जाता है तो बांध से छोड़े गये जल से नदियों की गति बहुत तेज होती है और इससे जमीन का कटाव होना ही है। आज जरूरत है कि पूर्वोत्तर की नदियों में ड्रेजिंग के जरिये गहराई को बढ़ाया जाए। इसके किनारे पर सघन वन लगें और रेत उत्खनन पर रोक लगे।