सुरेश सेठ
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अभी तक इक्कासी दफा अपने देशवासियों से मन की बात कह दी। जब-जब वह अपने मन की बात कहते हैं तो देशवासी बहुत प्रसन्न होते हैं। डेढ़ बरस से अधिक हो गया, देश को कोरोना से प्रकम्पित हुए। मन की बात में कौन-सा देशवासी यह सुनकर हर्षित नहीं होगा कि हमने रिकार्ड समय में बड़े-बड़े देशों को पीछे छोड़कर सौ करोड़ से अधिक लोगों को एक-एक टीका लगा दिया। कोरोना का निरोध तो टीके की दो खुराक लगने के बाद ही पूरी तरह होता है पर इसमें अभी हम पीछे हैं। आंकड़ा शास्त्रियों ने बताया है कि अभी केवल एक-चौथाई जनता को दो खुराक लगी है। तीन-चौथाई जनता को लगनी बाकी है।
सही है प्रधानमंत्री के जन्मदिन पर अढ़ाई करोड़ टीके लगाकर हमने विश्व में रिकार्ड बना लिया। लेकिन उसके बाद टीका लगाने की गति क्यों कम हुई? इसे घटना नहीं चाहिये। धूर्त कोरोना वायरस पल-पल में रूप बदलता है। जो टीका लग रहा है, वह कोरोना प्रतिरोधी टीका है। जरूरत इस भीड़ भरे देश को कोरोना के हर वायरस के रूप को उखाड़ फेंकने वाला टीका ईजाद करने की है। इस दिशा में हमारे कदम अभी आगे बढ़ने हैं।
इसके साथ ही बार-बार यह कहा जाता है कि कोरोना अभी पूरी तरह से विदा नहीं हुआ। चाहे उसके संक्रमण के आंकड़े बहुत कम हो गये हैं। लेकिन साथ ही देश के सर्वेक्षक यह भी बताते हैं कि देशभर में शारीरिक अन्तर बनाए रखने और मास्क पहनने की जागरूकता भी बहुत कम हो, लापरवाही में बदल गयी है। कोरोना की तीसरी लहर को हमारे त्वरित कोरोना निरोधी टीका अभियान ने रोक तो दिया, अलविदा नहीं कहा। पश्चिमी देशों को देख लो, कोरोना के दबने के बाद भी गाहे-बगाहे कोरोना के लौट आने के समाचार वहां से मिलने लगे हैं। इसलिए अपने देश में जीने की शैली और उसके अंदाज को बदलना होगा। मध्य-पूर्व के देशों में चेहरे का नकाब उनके जीवन का अंग है, हमें यही बोझ क्यों लगता है?
कोरोना काल के पूर्ण और अपूर्ण अवरोधों की कृपा से हमारी अर्थव्यवस्था खण्डित हो गयी। निवेश हतोत्साह हो गया। इस नयी मौद्रिक नीति में भी उदार साख नीति को जारी रखने का हठ है। आयात कम नहीं हो रहे। निर्यात बढ़ नहीं रहे। घाटे का बजट देश का परिचय बन गया है।
ऐसे माहौल में देश अजब विरोधाभास को जीने का आदी होता जा रहा है। देश में महंगाई सूचकांक बढ़ रहा है, बढ़ती कीमतों ने आम आदमी का जीवन दुश्वार कर दिया है। तिस पर पेट्रोलियम उत्पादों की कीमतों में कटौती के बावजूद आम आदमी की फटी जेब की कूवत से बाहर हो गयी हैं। विसंगति यह है कि मूल्य सूचकांक उधर बल्लियों उछलने लगा, लेकिन यह उपभोक्ता की मांग बढ़ने के कारण नहीं है। कोरोना काल की यह महंगाई विकास दर का घटना अपने साथ लायी है। सकल उत्पादन में रिकार्ड तोड़ गिरावट हो गयी है। वित्त मंत्रालय ने दो आर्थिक बूस्टर दे दिये, निवेश हतोत्साह क्यों हो रहा और बेकारी दर अपनी चरम सीमा पर क्यों?
अब जब रोजगार बढ़ेगा नहीं, कामगारों का वेतन नहीं बढ़ेगा तो मंडियों में मांग कैसे प्रोत्साहित होगी? देश में तो ऐसी महंगाई पैदा हो गयी कि इसे बढ़ती मांग का सहचर्य नहीं मिला। ऐसे में निवेश प्रेरणा बढ़ेगी तो कैसे? नया निवेश लाभ संभावनाओं पर जीता है। लाभ संभावनायें ऊंची कीमत और अधिक वेतन वाले रोजगार के बढ़ने से पैदा होती हैं। रोजगार बढ़ नहीं रहा। कोरोना ने महानगरों में श्रमिकों की बंधी-बंधाई गृहस्थियां उखाड़ दी हैं। इसका कारण रिकार्ड स्तर पर शहरों में काम-धंधों का बन्द होना है। लोगों के रोजगार छूट गये। श्रम शक्ति बहुत बड़े पैमाने पर अपने गांव-घरों की ओर अन्तिम आश्रय के रूप में चल दी।
अब कोरोना का दबाव कम हो गया, लेकिन तीसरी लहर के लौट आने की धमकी अभी भी दहला रही है। धरती की उत्पादकता अतिरिक्त लोगों को अपने दामन में समेट नहीं सकती, लेकिन फिलहाल उखड़े हुए लोग उन महानगरों में जाने के लिए तैयार नहीं, जहां नवजीवन का स्फुरण उन्हें नजर नहीं आता।
आंकड़ा शास्त्री बताते हैं कि यहां करोड़ों ऐसे श्रमिक हैं, जिनका आधार देसी और विदेशी महानगरों से खिसक गया था। ये सब लोग अब अपने गांव-घरों के पास छोटे कस्बों और शहरों में अपनी वैकल्पिक जिंदगी तलाश रहे हैं।
इसका समाधान वही है, जिसका जिक्र प्रधानमंत्री ने इस बार अपनी मन की बात में किया है, अर्थात गांव-घरों के पास कुटीर, लघु और मध्यम उद्योगों की स्थापना। किताबी रूप से इसके प्रोत्साहन की बहुत-सी बातें पिछले दिनों नेताओं के भाषणों में हुई हैं, लेकिन वास्तव में यह प्रेरणा छोटे उद्यमी को मिलती नजर नहीं आती।
अभी लगता है सरकार की प्राथमिकता विकास दर को बढ़ाने में है। मिश्रित अर्थव्यवस्था को त्याग निजीकरण की सहायता से देश की उत्पादकता को शिखर देने में है। इसीलिए पिछले दिनों महानगरों से परे ग्रामीण समाज की लाल रेखा के पीछे भी व्यावसायिक घरानों को अपने उद्यम स्थापित करने की इजाजत दे दी गयी है।
देश को आत्मनिर्भर होना है तो उसे डिजिटल होना होगा, स्वचालित होना होगा, कम्प्यूटर की ताकत इनसानी हिसाब-किताब और कार्य रूपरेखा का विकल्प बनेगी। आत्मनिर्भरता की दौड़ में देश कम्यूटरीकृत हो, डिजिटल हो, स्वचालित हो, इसमें दोष नहीं। लेकिन कैसे?
उस करोड़ों की तादाद में विस्थापित हो गयी श्रम शक्ति को भी तो देखना होगा, जिसे इस नये कार्य व्यवहार का प्रशिक्षण नहीं मिला जो अपने बाजुओं के बल से देश के नवनिर्माण के लिए समर्पित हो जाना चाहती है। रोजगार के नये आंकड़े बताते हैं कि देश के कम्प्यूटरीकृत होते जाने के साथ-साथ वहां निपुण और प्रशिक्षित कामगारों की कमी हो गयी है लेकिन अपनी मेहनत के बल पर जीने वाले करोड़ों लोग, जिन्हें कोरोना की महामारी ने बेकार कर दिया है, वे तो भूख और गरीबी से जूझ रहे हैं। विश्व में भुखमरी का नया सूचकांक आया है, भारत इसमें गिरावट का शिकार हो और नीचे उतर गया। इस भूख, बेकारी और गरीबी ने देश में भ्रष्टाचार के नये शिखरों को जन्म दे दिया। अभावग्रस्त हो अपना देश एक ऐसा देश बन रहा है, गरीबी-कुपोषण का संकट है। उसके स्थान पर ऐसी शार्टकट संस्कृति पैदा हो रही है जहां संपर्क और रिश्वत ही जीने का आधार बन गयी है। चोरबाजारी और काला धन ही वह मुक्ति मार्ग बन गया है, जिसका रास्ता झोपड़ी से बहुमंजिली इमारतों तक खुलता है।
जरूरत इस रास्ते से छुटकारा पाने की है। यह खैरात संस्कृति के प्रसार से नहीं होगा। कार्य संस्कृति के नव जन्म से पैदा होगा। यह संस्कृति खेतों और खलिहानों से उपजेगी और आम आदमी की मेहनत से चलने वाले छोटे-छोटे लघु कुटीर उद्योग ही उसे वह समाधान देंगे, जहां हर छोटा आदमी अपने मन का बादशाह है। उसका सामंजस्य बड़े उद्योगपतियों से बिठाना पड़ेगा। अगर हमें लक्ष्य निर्धारकों के मन की बात को जन-जन की बात बना देना है तो!
लेखक साहित्यकार एवं पत्रकार हैं।