उमेश चतुर्वेदी
सांस्कृतिक और राजनीतिक चेतना से लैस पश्चिम बंगाल में माटी-मानुष को भाजपा ने जिस तरह मुद्दा बनाया है, हैरत ही होगी कि इस माहौल में वहां बंकिम और टैगोर के विचारों की चर्चा ना हो लेकिन भद्रलोक ने निराश नहीं किया है। गुरुदेव की तपोभूमि शांति निकेतन के दौरे पर अमित शाह के पहुंचते ही टैगोर के विचारों के बहाने आरोपों-प्रत्यारोपों के दौर शुरू हो गए। पहले भाजपा का एक पोस्टर मुद्दा बना, जिसमें शाह की फोटो के नीचे गुरुदेव टैगोर का स्केच था। तृणमूल कांग्रेस ने आरोप लगाया कि भाजपा बंगाल की संस्कृति नहीं जानती और उसने गुरुदेव का अपमान किया है।
लेकिन सवाल यह भी है कि तृणमूल ने गुरुदेव का कितना मान रखा है? पश्चिम बंगाल राष्ट्रीय और स्वदेशी विचार के हुंकार की धरती है। पश्चिम बंगाल में भाजपा कितना सफल होगी, यह तो भविष्य में पता चलेगा लेकिन उसने निश्चित तौर पर राष्ट्रीयता, स्वदेशी और वैश्विकता के विचार की धरती पर इन्हीं हथियारों से ममता को मात देने की रणनीति बनाई है। ऐसे में इन तीनों विचारों खासकर गुरुदेव से जुड़े सवाल उठेंगे और इतिहास को खंगाला भी जाएगा। इन संदर्भों में कह सकते हैं कि आने वाले दिनों में पश्चिम बंगाल में इतिहास के साथ ही संस्कृति का खूब हवाला दिया जाएगा और इनके जरिए राजनीतिक हमले होंगे।
आधुनिक भारत में राष्ट्रीयता, स्वदेशी और वैश्विकता, तीनों ही विचार बंगाल की धरती पर फले-फूले। 1882 में अपने उपन्यास आनंद मठ में बंकिम चंद्र ने वंदेमातरम का जो घोष दिया, बाद में वह राष्ट्रीयता का उद्घोष बना। 1905 में बंगाल के विभाजन के खिलाफ बहिष्कार का जो आंदोलन शुरू हुआ, उसका आधार स्वदेशीवाद रहा। जिसे बाद में गांधी जी ने चरखे के रूप में अपनाकर अंग्रेजी शासन के बहिष्कार का औजार बना दिया। बंग भंग विरोधी आंदोलन के बहाने राष्ट्रवाद की लहर भी चली, जिसने भारत को नयी दृष्टि दी।
यह विरोधाभास ही है कि विश्व कवि गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर ने शुरू में बंग भंग के खिलाफ उमड़े प्रतिरोध के सुरों में स्वदेशीवाद का समर्थन किया। लेकिन 1913 में नोबेल पुरस्कार मिलने के बाद वैश्विक प्रतिष्ठा बढ़ने के बाद वे इससे विचलित होने लगते हैं।
भाजपा की आलोचना उसके राष्ट्रवाद को लेकर खूब की जाती है। कांग्रेस नेता और अन्य भाजपा विरोधी अक्सर 1916 और 1917 में गुरुदेव ने राष्ट्रवाद की जो परिभाषा दी, उनके आधार पर भाजपा पर सवाल उठाते हैं। राष्ट्रवाद को लेकर टैगोर ने 1916 और 1917 में जापान और अमेरिका में कुछ व्याख्यान दिए थे। कहना न होगा कि बंगाल की धरती पर भाजपा के आक्रामक अभियान के बाद एक बार फिर टैगोर के राष्ट्रवाद को बौद्धिक वर्ग में खूब याद किया जा रहा है। प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान हुई इन यात्राओं के दौरान राष्ट्रवाद को लेकर गुरुदेव की जो समझ बनी थी, उसके प्रमुखत: तीन आधार थे। उन्होंने देखा कि राष्ट्रीय राज्य की नीतियां आक्रामक हैं, वह वाणिज्य के साथ मिलकर मनुष्य की आंतरिक स्वाधीनता को बाधित करता है और इसमें नस्लवाद भी है।
भाजपा की आलोचना करने वाले राष्ट्रवाद पर गुरुदेव के विचारों की पृष्ठभूमि को भुला देते हैं। देश के अग्रणी सांख्यिकीविद प्रशांत महालनोबिस रवींद्रनाथ टैगोर के व्यक्तित्व, विचार और साहित्य के गहन अध्येता रहे हैं। स्वदेशीवाद से वैश्विकता तक की गुरुदेव की वैचारिक यात्रा को महालनोबिस टैगोर के दोहरे व्यक्तित्व के तौर पर देखते हैं। अक्तूबर, 1920 में लिखे एक पत्र में वे कहते हैं, ‘यूं तो उन्हें एकांत प्रिय है, लेकिन वे ज्यादा समय तक एकांतवासी नहीं रह सकते। उनमें कुछ ऐसी बात है, जो उन्हें सक्रियता के भंवरजाल की तरफ सदा धकेलती रहती है। …स्वदेशी के भरपूर प्रचार के बाद उन्होंने सभी समितियों से त्यागपत्र दे दिया था, हर संगठन से अपने संबंध तोड़ लिये थे।’
आधुनिक राष्ट्रवाद पर सवाल उठाने वालों को टैगोर साहित्य के दूसरे अध्येता ईपी थाम्पसन के निष्कर्ष को भी देखना चाहिए। थाम्पसन ने लिखा है, ‘राष्ट्रवाद के इन व्याख्यानों (टैगोर के व्याख्यान) के पीछे ऐतिहासिक दबाव भी थे। इनमें सबसे प्रमुख दबाव तो प्रथम विश्वयुद्ध का संघात है। युद्ध पूर्व दशक में जनहितैषी उदारतावाद व सार्वभौमवाद का बहुत गुणगान किया गया था और इसे पाश्चात्य और पूर्व की संस्कृति की महान उपलब्धियों का संवाहक माना गया था। स्वयं टैगोर इस आंदोलन से गहरे तक प्रभावित हुए थे।’
तृणमूल चाहे जो कहे, लेकिन यह भी सच है कि टैगोर के इन विचारों का जापान में वैसा स्वागत नहीं हुआ, जैसी उन्हें उम्मीद थी। ‘भारत में राष्ट्रवाद’ नामक व्याख्यान में टैगोर कहते हैं, ‘भारतवर्ष ने शुरू से ही जातियों की भिन्नता को स्वीकार कर लिया था। भारतवर्ष दीर्घावधि से ही सामाजिक एकता के विकास से संबंधित यह प्रयोग करता रहा है कि एक तरफ तो सभी लोगों में एकता की भावना बनी रहे तो दूसरी तरफ अपनी भिन्नता के बावजूद वे अपनी स्वतंत्रता का आनंद उठाते रह सकें। …इसने एक तरह के संयुक्त राष्ट्रों को जन्म दिया है, जिसका नाम है हिंदुत्व।’ कहना न होगा कि हिंदुत्व की इसी जमीन को पश्चिम बंगाल में भाजपा तैयार करने जा रही है। इसका मौका दिया है, ममता के शासन की सोच से सिरे से गायब इस विचार ने लेकिन बड़ा सवाल यह है कि क्या इसे ममता और उनके समर्थक स्वीकार कर पाएंगे?