विश्वनाथ सचदेव
अध्यात्म के क्षेत्र में चिंतन-मनन का कुछ भी अर्थ होता हो, राजनीति की दुनिया में चिंतन का रिश्ता राजनीतिक नफा-नुकसान के गणित से ही जोड़ा जाता है। फिर भी राजनीतिक दलों के चिंतन-शिविर कभी-कभी धुंध साफ करने का काम कर जाते हैं। हाल ही में राजस्थान के उदयपुर में हुए कांग्रेस पार्टी के चिंतन-शिविर में इस दिशा में की गयी कोशिश का दिखना एक अच्छा संकेत है। कहते हैं, किसी भी मर्ज़ के इलाज से पहले उसका सही निदान ज़रूरी होता है। इस दृष्टि से देखें तो कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष ने इस शिविर में सही नब्ज़ पर हाथ रखा है। अपने भाषण में राहुल गांधी ने स्पष्ट शब्दों में यह कहा है कि कांग्रेस का देश की जनता से संपर्क टूट गया है। किसी भी राजनीतिक दल के लिए यह स्थिति चिंतन की आवश्यकता को तो रेखांकित करती ही है, साथ ही यह चिंता का भी विषय होनी चाहिए।
देश की सबसे पुरानी पार्टी है कांग्रेस। आज़ादी प्राप्त करने के बाद दशकों तक कांग्रेस पार्टी ने देश का नेतृत्व किया है, देश को दिशा दी है। भारतीय जनता पार्टी समेत देश के अन्य कांग्रेस-विरोधी दल भले ही कुछ भी कहते रहें, यह एक हकीकत है कि प्रगति के जिस सोपान पर आज हमारा देश पहुंचा है, उसे वहां तक पहुंचाने में कांग्रेस की सरकारों का सर्वाधिक महत्वपूर्ण योगदान रहा है। देश को कांग्रेस-मुक्त बनाने के अभियान में लगी भाजपा का नेतृत्व आज कांग्रेस के इस योगदान को भले ही नकार रहा हो, पर इस हकीकत से इंकार नहीं किया जा सकता कि देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने न केवल विकास की राह दिखाई थी, बल्कि उंगली पकड़ कर उस राह पर चलना भी सिखाया था। इस संदर्भ में जब हम अपने आसपास के देशों को देखते हैं तो आज़ादी के बाद के हमारे नेतृत्व की महत्ता का अहसास अनायास ही हो जाता है।
ऐसा नहीं है कि कांग्रेस के शासन-काल में सब कुछ ठीक-ठाक ही हुआ था। जवाहरलाल नेहरू से लेकर बाद के कांग्रेसी प्रधानमंत्रियों की रीति-नीति पर कई बार सवाल उठे हैं और सवालों का उठना ग़लत भी नहीं था। पाकिस्तान को दो हिस्सों में बांटकर इंदिरा गांधी ने जिस राजनीतिक कौशल का परिचय दिया था, वह अपने आप में एक मिसाल है। देश का भरपूर समर्थन और प्यार मिला था तब उन्हें। तब के विपक्ष के नेता अटल बिहारी वाजपेयी ने तब उन्हें दुर्गा कह कर देश की जनता की भावनाओं को अभिव्यक्ति दी थी। उसी जनता ने इंदिरा गांधी द्वारा की गयी आपातकाल की घोषणा को सिरे से खारिज कर दिया था। यह भूल एक अपराध की तरह कांग्रेस पार्टी के दामन का दाग़ बनी हुई है, लेकिन इंदिरा गांधी द्वारा अपनी भूल स्वीकारने के बाद देश की जनता ने फिर से बागडोर उनके हाथों में सौंपी थी। जनता का यह विश्वास ही किसी भी नेतृत्व को, उसकी पार्टी को, औचित्य देता है।
लेकिन कोई भी पार्टी यह दावा नहीं कर सकती कि उससे ग़लती नहीं होती। ऐसी ग़लतियां ही किसी पार्टी को जनता से दूर सकती हैं, जनता से उसके संपर्क कमज़ोर बनाती हैं। कांग्रेस के साथ ऐसा ही हुआ। छह दशक के लंबे शासन में कई अवसर आये जब कांग्रेस की रीति-नीति से देश की जनता को शिकायत हुई। जनतंत्र में जनता सर्वोपरि होती है। उसने ऐसे हर अवसर पर कांग्रेस नेतृत्व को पाठ पढ़ाया। यह पाठ पढ़ाने की इसी प्रक्रिया का हिस्सा है कि पिछले दो आम चुनावों में कांग्रेस को भारी पराजय का मुंह देखना पड़ा।
लेकिन ऐसी पराजय में ही भविष्य की कोई जीत छिपी होती है। जनतंत्र में जीत-हार राजनीतिक प्रक्रिया का हिस्सा है। लेकिन ज़रूरी है, न जीतने वाला अपनी जीत पर रीझे और न हारने वाला हार से निराश होकर बैठ जाये। ऐसे में दोनों को चिंतन की आवश्यकता होती है- जीतने वाले को अपनी जीत को मज़बूत बनाने के लिए और हारने वाले को हार की निराशा से उबरने के लिए। इसी चिंतन की अगली कड़ी है संकल्प-आने वाले कल को बेहतर बनाने का संकल्प। भारत जोड़ो का नारा देकर, और इसके लिए संकल्प-बद्ध होकर कांग्रेस पार्टी ने अपने उदयपुर शिविर में यही कदम उठाने की घोषणा की है। पर सिर्फ घोषाणाएं पर्याप्त नहीं होतीं। घोषणाओं की क्रियान्विति उन्हें सही अर्थ देती है। भारत-जोड़ो अभियान ऐसी ही एक सार्थक कोशिश सिद्ध हो सकती है, बशर्ते कोशिश ईमानदार हो। पूरी निष्ठा और विश्वास के साथ की जाये यह कोशिश।
इसमें कोई संदेह नहीं कि पिछले कुछ दशकों में कांग्रेस और देश की जनता के बीच दूरी बढ़ी है। टूटा है संपर्क। चुनावों के परिणाम इस बात का स्पष्ट संकेत हैं कि इस दूरी को कम करने की कोशिशों में कहीं न कहीं कमी रही है। आवश्यकता इस कमी को दूर करने की है। बावजूद इसके कि आज कांग्रेस एक कमज़ोर स्थिति में है, हकीकत यह है कि कांग्रेस ही एक ऐसा राजनीतिक दल है जो भाजपा जैसी चुनौती का मुकाबला कर सकती है। यह सही है कि देश के अलग-अलग राज्यों में आज क्षेत्रीय दलों की स्थिति मज़बूत है। लेकिन इस बात को भी समझना ज़रूरी है कि क्षेत्रीय दल राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा या कांग्रेस का विकल्प नहीं हो सकते। यहीं इस बात को भी समझना होगा कि आज राजनीति जो चुनौती देश के सामने प्रस्तुत कर रही है, वह राष्ट्रव्यापी है। यह चुनौती देश की एकता को बनाये रखने की है, धर्म और जाति के नाम पर देश को बांटने की कोशिशों को नाकाम बनाने की है। विविधता में एकता की बात तो सब करते हैं, पर इस भावना को मज़बूत बनाने के लिए एक भारतीय समाज की परिकल्पना को साकार करने की ज़रूरत है। भाषा, धर्म, जाति, वर्ग, वर्ण से ऊपर उठकर चुनौती एक ऐसे भारत को बनाने की है जहां हर नागरिक पहले भारतीय होगा, फिर कुछ और।
आज देश जिस स्थिति में है उसमें राजनीतिक स्वार्थों से ऊपर उठकर सोचने की आवश्यकता है। लड़ाई सत्ता की नहीं, विचार की है। हमारा भारत मानवीय आदर्शों और मूल्यों को मानने वाला हो, इसके लिए आवश्यक है कि हम एक ऐसा समाज बनायें जिसमें हर नागरिक स्वयं को एक भारतीय के रूप में देखे। हर भारतीय एक जैसा हो। उसके अधिकार भी समान हों, और कर्तव्य भी। न तो किसी धर्म-विशेष का होने से कोई अधिक भारतीय बन सकता है और न ही किसी जाति-विशेष के आधार पर किसी के अधिकार दूसरे से अधिक हो सकते हैं। यह भारतीयता हमारे चिंतन का केंद्र होनी चाहिए। इस भारतीयता की भावना को मज़बूत बनाने की कोशिश हमारी चिंता का विषय होनी चाहिए। यह एक चुनौती है जो आज के भारत के सामने खड़ी है। हर राजनीतिक दल को, हर विचारधारा वाले भारतीय को यह संकल्प लेना होगा कि वह एक मज़बूत भारत बनाने की ईमानदार कोशिश करेगा। वह मज़बूत भारत हिंदू या मुसलमान का नहीं, सिख या ईसाई का नहीं, हर भारतीय का होगा। ‘भारत जोड़ो’ का यही मतलब हो सकता है।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।