शमीम शर्मा
जिंदा रहना ही आज सबसे बड़ी कामयाबी है। वह भी वक्त था कि जब कोई हालचाल पूछे कि भाई ठीक हो और जवाब मिले कि बिल्कुल ठीक हैं, पर अब ऐसा नहीं है। किसी भी घर में हालात ठीक नहीं हैं। ये दिन गर्मी भरे नहीं बल्कि त्रासदी भरे दिन हैं। दाह-संस्कार, चिता, अर्थी, अन्त्येष्टि, शोकसभा और श्मशान वे शब्द हो गये हैं जो इन दिनों सबसे ज़्यादा सुने जा रहे हैं। सबकी नींदें उड़ी हुई हैं।
हर जन कह रहा है कि अरे! कल तो फोन पर बात हुई थी और आज समाचार आता है कि नहीं रहे। दो दिन पहले तक फेसबुक पर धुआंधार बैटिंग कर रहे थे और आज अचानक शान्त। हर मिनट एक नया शोक संदेश मिल रहा है। ये हो क्या रहा है? अकल्पनीय और अविश्वसनीय। चोरी, रिश्वतखोरी, बेरोजगारी की बात करने की तो घड़ी ही नहीं रही। बस जान के लाले पड़े हुए हैं।
व्हाट्सएप पढ़ते-देखते हुए संदेशों में से रोने-चीखने की आवाजें सुनने लगती हैं। मन कसमसा कर बेबसी और रुलाई भरे गुस्से से भरने लगता है। बस एक बात समझ में आ रही है कि कोरोना के सामने कोई पद-पदवी, पैसा-सम्पदा, जमीन-जायदाद शोहरत, मैडल-तमगे आदि कुछ काम नहीं आ रहे। कोरोना भेदभाव नहीं कर रहा है। जो अपने धन-दौलत के बल पर गफलत में थे कि वे अमरपट्टा लिखवा कर लाये हैं और जिन्हें बैड या ऑक्सीजन चुटकी बजाते ही मिल गई, वे भी काल कवलित हो रहे हैं।
जिंदगियां मुट्ठी से रेत की मानिंद फिसलती जा रही हैं। कोई दुआ, प्रार्थना, कर्मकांड, मंत्र-जाप काम नहीं आ रहा। जो बच रहे हैं, वे या तो डॉक्टरों की बदौलत या अपने ही भीतर की पॉजिटिव एनर्जी के दम पर।
कोरोना इतना विस्फोटक हो चुका है कि इसकी तबाही का वेग अचानक फटने वाले बादल से भी ज्यादा भयावह लगता है। ओलावृष्टि की तरह लाशें बिछ रही हैं। ऑक्सीजन लेवल डोलते ही धरती डोलती नजर आ रही है। वीरता की परिभाषा ही बदल गई है। आज के दिन बहादुर वो है जो अस्पताल के बिस्तर पर बेबस लेटे परिजन के लिये कंधे पर गैस सिलेंडर और जेब में दवाइयों का लिफाफा ला सके। अमीर वो है, जिसने घर के पिछवाड़े में ऑक्सीजन सिलेंडर दबा रखे हैं और तिजौरियों में नोटों के साथ इंजेक्शन-दवाइयों के भंडार भर लिये हैं।
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कल एक खेत में कई चितायें जलती देखी। हंसाने की हिम्मत नहीं हो रही। इतना कहूंगी कि सवारी अपने सामान की खुद जिम्मेदार है की बजाय यह लिखा मिला करेगा कि सवारी अपनी जान की खुद जिम्मेदार है।