अनूप भटनागर
सामाजिक ताने-बाने को प्रभावी कर रहे जहरीले भाषणों की समस्या दिन-प्रतिदिन गंभीर होती जा रही है। अब तो ऐसा महसूस होने लगा है कि देश की दंड व्यवस्था के तहत जहां ‘हेट स्पीच’ को नये सिरे से परिभाषित करने की आवश्यकता है वहीं इस समस्या से निपटने के लिए ‘हेट स्पीच’ को अलग अपराध की श्रेणी में रखने के लिए कानून में संशोधन का भी वक्त आ गया है?
कई बार तो ऐसा महसूस होता है कि समाज में उन्माद पैदा करने के लिए नफरती भाषण देने की विभिन्न संप्रदायों के कतिपय स्वनामधन्य नेताओं में परस्पर होड़ लगी हुई। इस संबंध में धर्म संसद में आपत्तिजनक भाषण, बरेली में इत्तेहाद-ए-मिल्लत काउंसिल के प्रमुख के भाषण, विभिन्न चैनलों पर बहस के दौरान आपत्तिजनक टिप्पणियां और किसान आंदोलन के दौरान आपत्तिजनक भाषण और अब हेट स्पीच के दो मामलों में एआईएमआईएम के नेता को बरी किये जाने की घटना का उल्लेख अनुचित नहीं होगा।
बहरहाल, इस तरह के मामले जब तूल पकड़ते हैं तो सबसे पहले दलील दी जाती है कि उनके बयान को तोड़-मरोड़ कर संदर्भ से परे पेश किया गया है। यही नहीं, कई बार तो कथित रूप से नफरती भाषण देने या आपत्तिजनक शब्दों का इस्तेमाल करने वाले संविधान के अनुच्छेद 19 में प्रदत्त अभिव्यक्ति की आजादी के अधिकार के इस्तेमाल की दुहाई देने लगते हैं। ऐसी स्थिति में यह निर्धारित करना चुनौतीपूर्ण है कि कथित भाषण में कौन से शब्द आपत्तिजनक थे, जिनके इस्तेमाल के लिए संबंधित व्यक्ति के खिलाफ कार्रवाई होनी चाहिए। हाल ही में अजान बनाम हनुमान चालीसा मुद्दे के दौरान निर्दलीय सांसद नवनीत राणा और उनके विधायक पति की उन्माद फैलाने और सांप्रदायिक कटुता पैदा करने के आरोप में गिरफ्तारी बहुत कुछ बयां करती है। यह तय करना मुश्किल हो रहा है कि आखिर उन्माद या सामाजिक कटुता पैदा करने वाले कृत्य क्या हैं? पहली नजर में क्या यह पुलिस के विवेक पर निर्भर करता है या इसकी वजह कुछ और भी हो सकती हैं। सवाल यह भी है कि क्या इस तरह के आरोप में पुलिस किसी सांसद या विधायक को उसके घर से जबरन थाने ले जा सकती है?
धर्म संसद में दिये गए भाषणों को लेकर दिल्ली पुलिस के हलफनामे पर उच्चतम न्यायालय पहले ही अप्रसन्नता जाहिर कर चुका है और उसने नया हलफनामा दाखिल करने का निर्देश दिया है। हिमाचल प्रदेश में आयोजित ऐसी ही धर्म सभा में दिये गए नफरती भाषणों के बारे में भी न्यायालय ने हलफनामा दाखिल करने का निर्देश दिया है। एक जनहित याचिका में आरोप लगाया गया है कि इस आयोजन में अल्पसंख्यक समुदाय को निशाना बनाते हुए नफरती भाषण दिये गए जबकि दिल्ली पुलिस ने अपने हलफनामे में दावा किया कि इन आयोजनों में ऐसे शब्दों का इस्तेमाल नहीं किया गया, जिनका यह मतलब निकाला जाए कि इन भाषणों में खास समुदाय का नरसंहार करने का खुला आह्वान किया गया।
दूसरी ओर, एआईएमआईएम प्रमुख के छोटे भाई को करीब एक दशक पुराने नफरती भाषण के दो आपराधिक मामलों में बरी किये जाने का मामला भी चर्चा में है। हैदराबाद में सांसद-विधायकों के लिए विशेष सत्र अदालत ने आरोपी को बरी करते हुए कहा कि अभियोजन मामले में पर्याप्त सबूत पेश करने में विफल रहा है। आरोप था कि उन्होंने निजामाबाद और निर्मल में सार्वजनिक भाषण के दौरान एक समुदाय विशेष के खिलाफ आपत्तिजनक और भड़काने वाली भाषा का इस्तेमाल किया था।
भारतीय दंड संहिता और जन प्रतिनिधित्व कानून में वैमनस्य और कटुता वाले नफरती भाषणों से संबंधित अपराध के लिए सजा का प्रावधान है लेकिन अक्सर यह देखा गया है कि आरोपी ऐसे वक्तव्यों के लिए अभिव्यक्ति की आजादी के अधिकार का सहारा लेने का प्रयास करते हैं। कई बार वे इसमें सफल हो जाते हैं। इसी परिप्रेक्ष्य में सवाल उठता है कि आखिर ‘हेट स्पीच’ क्या है और इसे कैसे परिभाषित किया जाए।
उच्चतम न्यायालय ने मार्च 2014 में एक फैसले में कहा था कि ‘हेट स्पीच’ के मुद्दे पर विधि आयोग को गहराई से विचार करना चाहिए। न्यायालय ने आयोग से इस पर विचार करने का अनुरोध किया था कि क्या ‘हेट स्पीच’ को समुचित तरीके से परिभाषित करने की आवश्यकता है। विधि आयोग ने इस सवाल पर मार्च, 2017 में सरकार को अपनी रिपोर्ट सौंपी थी। आयोग ने भारतीय दंड संहिता में धारा 153 सी यानी नफरत के लिए उकसाने पर प्रतिबंध और धारा 505 यानी कतिपय मामलों में भय पैदा करना और हिंसा के लिए उकसाना शामिल करने का सुझाव दिया था। लेकिन ऐसा लगता है कि रिपोर्ट आने के पांच साल बाद भी इस पर अधिक कार्यवाही नहीं हुई और इस दौरान जाति, वर्ण, लिंग और धर्म आदि के आधार पर किसी न किसी समुदाय और संप्रदाय के प्रति जहरीले और नफरत भरे भाषण देने का सिलसिला बदस्तूर जारी है।
स्थिति की गंभीरता का अनुमान इसी तथ्य से लगाया जा सकता है कि अब तो राजनीतिक दलों के नेताओं के साथ अलावा धार्मिक नेता भी अपने प्रवचनों में उत्तेजना और कटुता पैदा करने वाले शब्दों का ज्यादा इस्तेमाल करने लगे हैं। इस प्रवृत्ति पर अविलंब अंकुश लगाने की आवश्यकता है ताकि इस समस्या को नासूर बनने से पहले ही इस पर प्रभावी तरीके से नियंत्रण पाया जा सके। उम्मीद है कि विधि आयोग की रिपोर्ट पर केंद्र की ठोस कार्यवाही नहीं करने के बावजूद अब देश की शीर्ष अदालत हेट स्पीच के मुद्दे को लेकर लंबित जनहित याचिका पर इस समस्या से निपटने के लिए उचित दिशा-निर्देश देगी।