दो जून को विदेश मंत्रालय के वरिष्ठ राजनयिक जेपी सिंह के नेतृत्व में एक प्रतिनिधिमंडल का काबुल पहुंचना इस बात का द्योतक है कि भारत सरकार तालिबान नीत अंतरिम सरकार के साथ राजनयिक रिश्ते बनाने की इच्छुक है। भारत ने तालिबान सरकार के साथ व्यापारिक संबंध कायम करने का संकेत दिया है। ऐसा करके भारत मुख्य क्षेत्रीय राष्ट्रों के पदचिन्हों पर चल रहा है।
देखना यह है कि इस राह के खुलने को रूस किस तरह लेगा। मार्च महीने में जब तालिबान द्वारा रूस के लिए नियुक्त किए गए कार्यकारी राजनयिक अधिकारी जमाल नासिर गरवाल मास्को पहुंचे और इस आमद पर रूसी सरकार की सहमति की पुष्टि प्रवक्ता मारिया झाकारोवा ने की, तब इसे पूर्ण-रूपेण द्विपक्षीय रिश्ते कायम करने में एक कदम आगे बताया। हालांकि उन्होंने कहा कि फिलहाल तालिबान सरकार को विधिवत मान्यता देने की बात करना जल्दबाजी होगी। 29 अप्रैल को रूसी विदेश मंत्री सर्गेई लावरोव ने सूचित किया कि अफगानी कार्यकारी राजनयिक अधिकारी ने मास्को में अपना काम करना शुरू कर दिया है।
पिछले मंगलवार, रूसी समाचार एजेंसी ‘तास’ के मुताबिक गरवाल सेंट पीटर्सबर्ग में आयोजित हो रहे अतंर्राष्ट्रीय आर्थिक समूह (15-18 जून) में भाग लेंगे, ‘रूस का दावोस’ कहे जाने वाले इस गुट की मेजबानी आमतौर पर राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन करते रहे हैं, जैसा कि वर्ष 1997 से पहले भी किया करते थे, इसमें चर्चा का ध्यान मुख्यतः व्यापार, वैश्विक और रूसी अर्थव्यवस्था, सामाजिक विषय और तकनीकी विकास पर केंद्रित रहेगा। रूस ने तालिबानी अधिकारियों को अमेरिकी ढंग के अपवादपूर्ण चश्मे से देखने की बजाय उन अपनों की तरह लिया, जो नाराज होकर विरक्त हुए किंतु फिर लौट आए। पिछले बुधवार, रूसी विदेश मंत्रालय की वेबसाइट में ‘अफगानिस्तान की वर्तमान स्थिति’ शीर्षक से एक प्रेस विज्ञप्ति छपी, जिसमें कहा गया कि संयुक्त राष्ट्र में तालिबान मुहिम को बतौर एक संगठन आतंकवादी की तरह नहीं लिया जाता और प्रतिबंध कुछेक व्यक्तियों पर ही लागू होते हैं।
इस रूसी लेख में अमेरिका के विशेष प्रतिनिधि टॉम वेस्ट की हालिया यात्राओं का उल्लेख करते हुए, जिसमें उन्होंने नई दिल्ली और इस्ताम्बुल में कुछ अफगान शरणार्थियों से मुलाकात की थी, खुले तौर पर अमेरिका की आलोचना करते हुए कहा कि अफगानिस्तान को लेकर अमेरिकियों के पास ताजा विचार नहीं हैं और वे अभी भी उन लोगों पर निर्भर हैं जो खुद अफगानिस्तान में लोकतंत्र स्थापना के लिए 20 साल तक चले प्रयोगों की विफलता का नमूना हैं… वह जो सत्ता हस्तांतरण के समय, सबसे मुश्किल घड़ी में अपने लोगों को छोड़कर भाग खड़े हुए, नतीजतन देश में उनका प्रभाव जाता रहा।
यह दो टूक ऐसे वक्त पर आई है जब पश्चिमी देश तालिबान को नाथने के लिए संयुक्त राष्ट्र के प्रतिबंधों की चूड़ियां और कसवाने का गुप्त अभियान चलाए हुए हैं– इसके लिए मानवाधिकार निगरानी संगठन को ढाल बनाया जा रहा है। जब उन्होंने पाया कि तालिबान सरकार अफगानिस्तान के अंदर और मध्य एशिया में पश्चिमी जगत के भू-राजनीतिक हितों की खातिर ‘धाय मां’ बनने को तैयार नहीं है, तो उनके खेल की रणनीति अब बदलकर तालिबान को घेरने और सजा देने की ओर है। नई बनी शीत युद्ध की स्थिति ने इसमें तात्कालिकता का अवयव और जोड़ दिया है, जैसा कि देखा गया कि संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में तालिबान पर प्रतिबंध लगाने के लिए रखी गई बैठक से पहले जर्मन विदेश मंत्री एन्नालिना बेयरबॉक पाकिस्तान की अप्रत्याशित यात्रा पर पहुंचीं। बेयरबॉक ने कहा कि अफगानिस्तान में तालिबान सरकार आने के बाद से नागरिकों और मुल्क की मुसीबतों और भूख की स्थिति में अविश्वसनीय बढ़ोतरी हुई है और देश गलत दिशा में जा रहा है, जिसका असर अंतर्राष्ट्रीय बिरादरी पर भी होकर रहेगा।
बेयरबॉक की इस कवायद का उद्देश्य दरअसल तालिबान के खिलाफ समन्वित और जबरदस्त प्रतिबंध लगाने के प्रस्ताव में पाकिस्तान की प्रतिक्रिया की टोह लेना था, जो इस अनुमान पर आधारित है कि रावलपिंडी स्थित पाक-सेना मुख्यालय तालिबान के विरुद्ध कुछ ऐसा दंडात्मक औजार तलाश कर रहा है, जो इससे पहले कभी बरता गया हो। पश्चिमी जगत इस ताक में है कि कब पाकिस्तानी सेना अपनी नीतियां फिर से निर्धारित करे और उसे मौका मिले।
‘अमेरिकी शांति संस्थान’ ने पिछले दिनों इस बात को लेकर माथापच्ची की है कि अमेरिकी नीतियों की महत्वपूर्ण तरजीहों की खातिर पाकिस्तान और अमेरिका संयुक्त रूप से जोर डालकर तालिबान को राह पर ला सकते हैं और इस बाबत यदि पाकिस्तान सार्वजनिक रूप से यह संकेत दे डाले कि फिलहाल तालिबान की मान्यता पर विचार टल गया है, तो इससे मदद मिल सकती है… हो सके तो पाकिस्तान तालिबान सरकार से बरतने में राजनयिक रुतबा घटाकर इसको अमेरिकी सरकार के आतंकरोधी विषय सूची के अनुरूप बना दे।
यही वह बिंदु है जिस पर राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल ने हाल ही में दुशाम्बे में हुई ‘क्षेत्रीय वार्ता समूह’ में भारतीय विचार को अधिमान देते हुए संबोधन दिया था। उन्होंने वास्तविक परिस्थितियों के परिप्रेक्ष्य में, भारतीय नीतियों की रूपरेखा पुनः निर्धारित करते वक्त अफगानिस्तान की आतंकरोधी एवं आतंकी गुटों से निपटने की क्षमता का आकलन ध्यान में रखने की बात कही है, वहीं ठीक इसी वक्त यह आस भी कायम रखी है कि क्षेत्रीय वार्ता समूह के सदस्यों के संयुक्त प्रयासों से अफगानिस्तान को एक समृद्ध और जीवंत राष्ट्र में बदला जा सकता है।
अफगानिस्तान को फिर से अस्थिर नहीं होने देना चाहिए और ध्यान मुख्यतः मानवीय और अन्य मदद देने के इंतजामों पर केंद्रित रखा जाए। यह नया विचार पंजशीर घाटी की वास्तविक स्थितियों के आलोक में किन्हीं बाहरी तत्वों द्वारा नागरिक युद्ध भड़काने के कपटपूर्ण प्रयासों की संभावना निरस्त करता है। डोभाल ने राष्ट्र निर्माण में अफगान समाज के तमाम वर्गों का प्रतिनिधित्व बनाने पर जोर दिया है ताकि जनसंख्या का ज्यादा से ज्यादा हिस्सा अपना योगदान देने को प्रेरित हो सके। फिर भी, डोभाल ने इस काम में किसी पूर्व निर्धारित इबारत बनाने से इंकार किया और इस तरह अफगान संस्कृति की सच्चाई और माफ कर देने के जन्मजात गुणों में भारत का भरोसा जताया है।
तालिबान ‘लोया-जिरगा’ नामक महा-पंचायत बुलाने की सोच रहा है। पूर्व अफगान सरकार के अधिकारी जो कि सत्ता परिवर्तन के वक्त काबुल से भाग गए थे, जिनमें एकदम हालिया दिनों में राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद से पलायन करने वाले पूर्व अधिकारियों के अलावा एक जनरल भी शामिल है, जो पिछली सरकार में रक्षा मंत्रालय का प्रवक्ता और उप-मंत्री था, तालिबान अब उन सबकी वापसी का स्वागत कर रहा है। पूर्व शिक्षा मंत्री फारूक वरदाक हामिद करज़ाई और अशरफ गनी सरकार में रह चुके हैं, उच्चतम स्तर के वह अधिकारी हैं, जिनकी वापसी का गर्मजोशी से इस्तकबाल किया गया है। तालिबान का चित्रण केवल एक चरमपंथी की तरह करना हकीकत से परे है। उनकी मुहिम को स्थानीय लोगों में कहीं ज्यादा लोकप्रियता मिली है, जबकि पश्चिमी दुष्प्रचार ने उनकी छवि बदलाखोर प्रतिगामी हुकूमत वाली बना रखी है। तालिबान धरती-पुत्र हैं और किसी के बहकावे में आने वाले नहीं हैं। यही वजह है कि डोभाल के संबोधन में व्यक्त संवेदना और सहानुभूति ताजी हवा के झोंके की तरह है।
लेखक पूर्व राजनयिक हैं।