लक्ष्मीकांता चावला
देश की जेलों में बहुत से लोग ऐसे हैं जो उन अपराधों के लिए दंड पा रहे हैं जो अपराध उन्होंने नहीं किये, पर लोकतंत्र के बावजूद गरीब की पीड़ा को महसूस करने वाला कोई नहीं। सुप्रीम कोर्ट का दरवाजे खटखटाने की सामर्थ्य जिनमें है, वे कभी भी मोटी रकमें खर्च कर शीर्ष अदालतों में न्याय मांगते हैं। अधिकतर को मिल भी जाता है, पर उन लोगों के लिए कोई संरक्षण नहीं जो गरीब ,लाचार और अशिक्षित हैं।
पंजाब में पिछली सरकार ने नशों के विरुद्ध अभियान चलाया था तब भी मैंने कहा था कि नशों पर नियंत्रण तो नहीं हो रहा, लेकिन कुछ कमजोर लोगों को नशा बेचने के नाम पर पकड़कर जेलों में डाला गया। मुख्यमंत्री बादल जब अमृतसर जेल में गए थे तो हजारों युवकों ने उनसे गुहार भी लगाई थी कि वे नशा बेचते नहीं, करते रहे हैं। अब उन्हें नशामुक्ति केंद्र में रखा जाए, कैदी बनाकर नहीं। मैंने प्रत्यक्ष उन परिवारों को देखा है जिनके बच्चे नशा नहीं भी करते थे, पर क्योंकि सरकारी आदेश से पुलिस ने बड़ी संख्या में नशेबाजों को पकड़ने के लिए अपने कारनामे दिखाने थे, इसलिए वे भी पकड़े गए। बस संख्या बढ़नी चाहिए थी, जिससे वे अपनी कारगुजारी अधिकारियों को बता सकें। लेकिन उनके लिए बहुत बड़ी त्रासदी है जिन्हें रिमांड में पीटा, हथकड़ी लगाई गई। उन गरीब बेचारों के परिवारों को कर्जा लेकर या मकान बेचकर इन बच्चों के केस लड़ने पड़े।
दस वर्ष पूर्व मोगा और बरनाला के दो परिवारों के दस लोग कत्ल केस में जेल में डाले गए थे। दस वर्ष बाद पता चला कि जिसके कत्ल के आरोप में डाले गए हैं वह तो जिंदा है। इस बीच उनके परिवार भी गरीबी, बेकारी और मौत की चोट से लगभग उजड़ चुके थे। सवाल अब यह है कि जेलों में फंसे हजारों निर्दोषों की कैसे पहचान की जाए, जिन्हें अदालतें सजा दे चुकी हैं उनके लिए अपीलें कौन करे। ऐसे कई केस देखे हैं जो वर्षों तक हवालाती बने जेलों में बंद हैं। उनका केस लड़ने वाला कोई नहीं। कई लोगों का जीवन उम्रकैद की यातना में बीत गया, पर उनकी अपील पर सुनवाई नहीं हुई।
दरअसल, हर जेल के साथ एक एक सामाजिक कार्यकर्ताओं की कमेटी बनाई जाए, जिसमें कानून विशेषज्ञ भी हों, उसे कैदियों से संपर्क करने के लिए भेज जाए। देश के जितने भी लॉ कालेज हैं हर लॉ कालेज को कुछ जेलों का कार्य सौंपा जाए। जहां ये विद्यार्थी जाकर बंदियों से मिलें, उनकी अपील उच्च न्यायालय तक पहुंचाने में सहयोग करें। ऐसा ही कार्य करें जैसा मेडिकल स्टूडेंट्स अपनी पांच वर्ष की शिक्षा पाने के बाद इंटर्नशिप करते हैं। प्रबंध तो वहीं से करना चाहिए जहां पुलिस स्टेशन का एक एएसआई जब जांच अधिकारी बन जाता है तो उसकी शक्तियां अनियंत्रित, असीमित होती हैं। एक बार जिसका एफआईआर में नाम दे दिया उसे बाहर निकलने के लिए निर्दोष होते हुए भी वर्षों अदालतों के धक्के खाने और रुपये की होली करनी पड़ती है। एक और शब्द है पुलिस एफआईआर में अज्ञात व्यक्ति। किसी भी एफआईआर में यह आम शब्द है दो-चार आरोपियों के नाम लिखकर एक दर्जन से ज्यादा अज्ञात। इसके नाम पर किस-किस की जेब ढीली करवाई जाती है यह उन्हीं बेचारों से पूछो, जिसने यह यातना भोगी है। अब बात फिर विष्णु की। प्रश्न है इसका गुनहगार कौन। वह जांच अधिकारी, वह पुलिस थाना, थाने का पुलिस इंस्पेक्टर और झूठी गवाही देने वाले लोग सभी हैं। इसी केस में जितने भी निर्दोष को दंड दिलवाने वाले कानून के रक्षक हैं, उनको कानून की बेड़ियों में जकड़ा जाए। अब भविष्य कोई संवार ले। किसी भी उच्चस्तरीय जांच के बिना पर्चा दर्ज न हो। जब तक आरोप सिद्ध न हो जाए, आरोपी जमानत पर रहे। कोई भी धनाभाव के कारण कानूनी सहायता से वंचित न रह जाए। भविष्य में कोई जवानी जेल की सलाखों में तड़प-तड़प कर काटने के लिए मजबूर न हो। याद है बंगाल का धनंजय, जिसे दुनिया से गए वर्षों बीत गए, उसे फांसी हुई थी। उसका अंतिम वक्तव्य जो अखबारों में छपा। उसने कहा था, मुझे फांसी दी जा रही है। उस अपराध के लिए जो मैंने कभी किया नहीं।