अनूप भटनागर
जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री डॉ. फारूक अब्दुल्ला पर राष्ट्रद्रोह का मुकदमा चलाने के लिये दायर निजी याचिकायें खारिज होने के बाद एक बार फिर भारतीय दंड संहिता में मौजूद राष्ट्रद्रोह के प्रावधानों को लेकर नये सिरे से बहस होने लगी है। देश की सर्वोच्च न्यायपालिका बार-बार अपनी व्यवस्थाओं में कह रही है कि लोकतांत्रिक व्यवस्था में असहमति को किसी भी तरह से राष्ट्रद्रोह नहीं माना जा सकता।
फारूक अब्दुल्ला पर राष्ट्रद्रोह का मुकदमा चलाने के लिये दायर याचिका खारिज करते हुए सर्वोच्च अदालत ने यही कहा है कि केन्द्र सरकार के निर्णय पर असहमति वाले विचारों की अभिव्यक्ति को राजद्रोह नहीं कहा जा सकता। न्यायालय ने कहा कि डा. अब्दुल्ला के बयान में ऐसा कुछ नहीं है जो आपत्तिजनक हो और जिसके लिये अदालत को कार्यवाही शुरू करने का आदेश देने की आवश्यकता हो। भारतीय दंड संहिता की धारा 124-ए में राष्ट्रद्रोह की परिभाषा के अनुसार अगर कोई व्यक्ति सरकार-विरोधी सामग्री लिखता या बोलता या ऐसी सामग्री का समर्थन करता है, जिससे असंतोष पैदा हो तो यह राष्ट्रद्रोह है, दंडनीय अपराध है।
लेकिन हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि ब्रिटिश शासन के दौरान अंग्रेजों ने अपने खिलाफ उठने वाली आवाज को कुचलने के लिये भारतीय दंड संहिता में यह प्रावधान शामिल किया था। ऐसी स्थिति में क्या आजादी के 70 वर्ष बाद भी देश की कानून के किताब में इस प्रावधान की आवश्यकता नहीं है। आपातकाल के दौर के बाद हाल के दशकों में इस प्रावधान के दुरुपयोग का सिलसिला तमिलनाडु में जयललिता के शासन में सबसे ज्यादा देखने को मिला था और ऐसे प्रत्येक मामले में न्यायपालिका ने राज्य सरकार और पुलिस को फटकार लगाई।
न्यायपालिका की चिंताओं से सहमत होते ही विधि आयोग ने भी अलग-अलग अवसरों पर अपनी रिपोर्ट में प्रावधान पर पुन: विचार करने या रद्द करने का सुझाव दिया लेकिन इस प्रावधान को रद्द करना तो दूर, पुनर्विचार तक नहीं हुआ है।
नरेन्द्र मोदी सरकार के कार्यकाल में 31 अगस्त 2018 को विधि आयोग ने ‘राष्ट्रद्रोह’ विषय पर एक परामर्श पत्र में कहा था कि देश या इसके किसी पहलू की आलोचना राष्ट्रद्रोह नहीं माना जा सकता। यह आरोप सिर्फ उन मामलों में लगाया जा सकता है जब हिंसा और अवैध तरीकों से सरकार को अपदस्थ करने की मंशा हो। यही नहीं, हाल के वर्षों में शीर्ष अदालत के अनेक न्यायाधीशों ने असहमति को जीवंत लोकतंत्र का प्रतीक बताते हुए इसके सम्मान पर जोर दिया है। न्यायपालिका ने इस तथ्य को भी इंगित किया है कि समाज में विभिन्न मुद्दों पर विपरीत विचारधारा के लिये असहिष्णुता बढ़ रही है जो चिंता की बात है।
न्यायपालिका असहमति को जहां लोकतंत्र का सेफ्टी वाल्व मानती है वहीं उसका यह भी कहना है कि असहमति को सिरे से राष्ट्रविरोधी या लोकतंत्र विरोधी बताना लोकतंत्र पर ही हमला है क्योंकि विचारों को दबाने का मतलब देश की अंतरात्मा को दबाना है। लोकतंत्र में सरकार की नीतियों के खिलाफ स्वतंत्र आन्दोलन के संदर्भ में 1962 में उच्चतम न्यायालय के न्यायमूर्ति के. सुब्बाराव ने अपने फैसले में कहा था कि पुलिस की पैनी निगाहों के दायरे में जन-आन्दोलन को स्वतंत्र आन्दोलन नहीं माना जा सकता और अगर नागिरकों की गतिविधियां पुलिस की निगरानी के दायरे में रहेंगी तो देश जेल बन कर रह जायेगा जो किसी भी तरह से लोकतंत्र के लिये शुभ नहीं होगा।
हमारे संविधान ने नागरिकों को अभिव्यक्ति की आजादी प्रदान की है, हालांकि यह अधिकार निर्बाध नहीं है और आवश्यकता पड़ने पर इसे सीमित किया जा सकता है। ऐसी स्थिति में राष्ट्रद्रोह के आरोप लगाते समय संविधान के अनुच्छेद 19 (1)(ए) में प्रदत्त अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार को ध्यान में रखना जरूरी है। इसके बावजूद यह सवाल उठता है कि अगर असहमति के विचारों के आदान-प्रदान में हिंसा करने, विघटनकारी गतिविधियों को सही ठहराने या फिर सरकार से अपनी बातों को मनवाने के लिये लोगों को हिंसा के लिये उकसाने जैसी गतिविधियों का सहारा लिया जाये तो क्या इसे जीवंत लोकतंत्र के लिये सही माना जायेगा।
इस संबंध में नागरिकता संशोधन कानून और राष्ट्रीय नागरिक पंजी. कानून और जम्मू -कश्मीर को विशेष राज्य का दर्जा देने वाले संविधान के अनुच्छेद 370 के अधिकांश प्रावधान खत्म करने के सरकार के फैसले को लेकर हुआ विरोध और इन पर विभिन्न दलों के नेताओं के विचारों पर भी ध्यान देने की आवश्यकता होगी।
ऐसे में सरकार भारतीय दंड संहिता की धारा 124-ए को कानून की किताब में बरकरार रखने या इसमें उचित संशोधन करने पर विचार करे ताकि इसका दुरुपयोग नहीं हो सके।