विश्वनाथ सचदेव
हाल ही में पांच राज्यों में हुए चुनाव के नतीजे सामने हैं। पंजाब को छोड़कर, जहां आम आदमी पार्टी को शानदार सफलता मिली है, बाकी चारों राज्यों में भाजपा मतदाता के पूर्ण समर्थन के साथ विजयी हुई है। ऐसे में देशभर में भाजपा का जश्न मनाना स्वाभाविक है। नतीजों पर टिप्पणी करते हुए प्रधानमंत्री ने उत्तर प्रदेश में मिली विजय को 2024 में होने वाले लोकसभा के चुनाव-परिणामों का पूर्वाभास भी कहा है। अनुमान लगाये जाने भी स्वाभाविक हैं और यह भी संभव है कि अगले आम चुनाव में भाजपा की मनोकामना भी पूरी हो जाये।
लेकिन यह समय हर पार्टी के लिए अपने भीतर झांकने का भी है। जो जीते हैं वे, और जो हारे हैं वे भी, चुनाव-परिणामों की समीक्षा कर रहे हैं। अपने-अपने ढंग से अपने अगले रास्तों, और अगली चालों के बारे में सब सोचेंगे। पर एक बात देश के मतदाता को भी सोचनी है- देश में जनतंत्र के भविष्य की बात। आज दक्षिण भारत के कुछ राज्यों, और पश्चिम बंगाल, पंजाब, राजस्थान, छत्तीसगढ़ आदि को छोड़कर भाजपा का शासन है। यह पहली बार नहीं है जब देश में ऐसी स्थितियां बनी हैं। केंद्र में कांग्रेस के शासन-काल में भी अधिकांश राज्यों में एक दल का वर्चस्व था। तब भी यह बात अक्सर उठा करती थी कि इतना बड़ा जन-समर्थन किसी भी राजनीतिक दल को अजेय होने का भ्रम करा सकता है, और जनतंत्र की दृष्टि से शासक का यह भाव खतरनाक है। सत्ता में आने, और बने रहने, की आकांक्षा किसी भी दल की हो सकती है, पर सत्ता पर एकाधिकार की स्थिति तानाशाही के रास्ते पर ले जाने वाली बन सकती है। इसीलिए कहा गया है कि जनतंत्र की सफलता के लिए एक मज़बूत प्रतिपक्ष का होना नितांत ज़रूरी है। सत्तारूढ़ पक्ष और विपक्ष, दोनों का ताकतवर होना ही वह संतुलन है जो जनतंत्र को सफल और सार्थक बनाता है। जब देश में कांग्रेस पार्टी का सत्ता पर लगभग एकाधिकार था, उन दिनों तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने अपने दल के निर्वाचित सांसदों से कहा था कि संसद में विपक्ष बहुत कमज़ोर है, इसलिए कांग्रेस के सदस्यों को विपक्ष की भूमिका भी निभानी होगी। विपक्ष की भूमिका से उनका मतलब सत्ता पर नज़र रखने से था। नेहरू अपनी मज़बूत सरकार चाहते थे, पर साथ ही वे यह भी मानते थे कि मज़बूत विपक्ष भी जनतंत्र की आवश्यकता है।
आज भी संसद में भारतीय जनता पार्टी भारी बहुमत से सत्ता में है और प्रमुख विपक्षी दल कांग्रेस के पास बहुत कम सीटें हैं। स्थिति असंतुलित जनतंत्र की है, इसलिए यह खतरा हर समय बना रहेगा कि सत्तारूढ़ पक्ष मनमानी पर न उतर आये। भाजपा सरकार जब 2014 में सत्ता में आयी थी तो चुनाव के दौरान उसने कांग्रेस-मुक्त भारत का नारा दिया था। आज देश में कुल दो राज्यों में कांग्रेस सरकार बची है। अर्थात् कांग्रेस-मुक्त भारत जैसी स्थिति लगभग बन ही गयी है। विपक्ष में और भी कोई दल ऐसा नहीं दिख रहा जो भाजपा को चुनौती देने की स्थिति में हो। पंजाब में आम आदमी पार्टी की विजय के बाद वह अखिल भारतीय स्तर पर अपनी विजय के सपने अवश्य देखने लगी है, पर मात्र दिल्ली और पंजाब की अपनी ‘पूंजी’ की सीमाओं से वह अपरिचित नहीं होगी। ऐसे में सत्तारूढ़ दल का उच्छृंखल हो जाना भी अस्वाभाविक नहीं कहा जायेगा। इसी स्थिति का तकाज़ा है कि सभी राजनीतिक दल अपने भीतर झांकें। सत्तारूढ़ दल को अपने ऊपर अंकुश रखना है और विपक्ष को स्वयं को फिर से मज़बूत बनाना है।
दुर्भाग्य से ऐसा होता नहीं दिख रहा। चार राज्यों में विजय के बाद भाजपा के सांसदों ने जिस तरह संसद में ‘मोदी-मोदी’ के नारे लगाकर अपने ‘सेनापति’ का अभिनंदन किया वह उचित नहीं कहा जा सकता। विजय प्रसन्न होने तथा संतुष्टि का भाव देने वाली होती है। पर यह भी ज़रूरी है कि हर विजय के बाद विजयी कृतज्ञता के भाव से भरा दिखाई दे। उस दिन भाजपाई सांसदों-नेताओं में यह भाव दिखा नहीं। दिखना चाहिए।
जहां तक विपक्ष का सवाल है, कांग्रेस कार्य-समिति की बैठक में भी आत्म-निरीक्षण जैसी प्रक्रिया का अभाव ही दिखा। कांग्रेस-अध्यक्ष सोनिया गांधी ने अपने प्रारंभिक वक्तव्य में पद छोड़ने की बात तो कही, पर साथ ही ‘यदि आप चाहें तो’ जैसी शर्त भी लगा दी। हो सकता है संसद के मौजूदा सत्र के बाद होने वाले चिंतन-शिविर में ऐसा कुछ हो, पर कांग्रेस पार्टी को समझना होगा कि देश की वर्तमान राजनीतिक स्थिति में वह अलग-थलग पड़ रही है। उत्तर प्रदेश चुनाव में मात्र दो प्रतिशत वोट शेयर पाना कांग्रेस जैसे दल के लिए चिंतन ही नहीं, चिंता का विषय होना चाहिए। इस चिंता का संकेत तो दिया है पार्टी ने, पर चिंता का परिणाम भी सामने आना चाहिए। इस संदर्भ में उसे जो कुछ करना है, वह जल्दी भी होना ज़रूरी है।
उत्तर प्रदेश में अधिसंख्य कांग्रेसी उम्मीदवारों की ज़मानत जब्त होना कांग्रेस की अपर्याप्त तैयारी का ही संकेत नहीं है, मतदाता की अपेक्षाओं पर उसके खरा न उतरने का प्रमाण भी है। अब इस स्थिति के लिए उत्तरदायित्व तय होने के साथ ही उन कारणों का लेखा-जोखा भी हो जो ऐसी स्थिति उत्पन्न करते हैं।
मज़बूत विपक्ष का होना जनतंत्र की सफलता की एक महत्वपूर्ण शर्त है, पर विपक्ष के मज़बूत होने का दायित्व मतदाता का नहीं, स्वयं विपक्ष का है। सही है कि मतदाता ने महंगाई, बेरोज़गारी, किसान-समस्या जैसे मुद्दों की गम्भीरता को नहीं समझा, पर समूचा विपक्ष इस गम्भीरता को समझाने में भी विफल रहा। इन चुनावों में, खासकर उत्तर प्रदेश में, कानून-व्यवस्था और सरकारी योजनाओं को ‘लाभार्थियों’ के मुद्दों का सत्तारूढ़ दल को पर्याप्त लाभ मिला, पर धर्म के नाम पर ध्रुवीकरण और ‘बुलडोज़री’ तौर-तरीकों का भी फायदा सत्ता-पक्ष ने भरपूर उठाया है। विपक्ष को यह भी सोचना-समझना होगा कि इस तरह की रणनीति का मुकाबला कैसे हो। सच तो यह है कि उत्तर प्रदेश, और बाकी राज्यों में भी, भाजपा की जीत का बड़ा कारण विपक्ष की अक्षमता ही है- इस हार में सबसे बड़ा योगदान भी विपक्ष का ही रहा है। अब विपक्ष को अपने तौर-तरीके व सोच बदलनी होगी, नयी रणनीति बनानी होगी। भारत की भावी राजनीति का दारोमदार भाजपा पर नहीं, विपक्ष के समझे-किये पर निर्भर करेगा। पांच राज्यों के चुनाव-परिणाम विपक्ष के लिए एक चेतावनी हैं। उम्मीद है वह इस चेतावनी को समझेगा।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।