जी. पार्थसारथी
अमेरिका अफगानिस्तान से अपनी फौज हटाने की तैयारी कर रहा है, तो उन परिस्थितियों का सिंहावलोकन जरूरी है, जिनकी वजह से सैन्य हस्तक्षेप करना पड़ा था। 9 सितंबर, 2001 को न्यूयार्क और वाशिंगटन पर आतंकी हमला करने वाले अल-कायदा गुट का डेरा उस वक्त अफगानिस्तान में था। एक महीने के भीतर अमेरिका ने तालिबान के शासन वाले इलाके में आतंकी ठिकानों पर भारी हवाई बमबारी की, तत्पश्चात सेना उतार दी। तालिबान सरगना मुल्ला उमर, जो ओसामा बिन लादेन का मेजबान था, वह खुद समर्थकों समेत भागकर पाकिस्तान में जा छिपा था। तब से शुरू हुई लड़ाई आज 19 साल बाद भी जारी है। अमूनन 1 लाख 11 हजार अफगान और 4092 अमेरिकी सैनिक इसमें होम हो चुके हैं। हैरानी की बात है कि अमेरिका ने इस युद्ध में पाकिस्तान को एक मुख्य सहयोगी बताया था और खुलकर आर्थिक और सैन्य मदद की थी। पाकिस्तान ने इस मदद के बड़े भाग को जनजातीय क्षेत्र की पश्तून आबादी को ‘सबक सिखाने’ हेतु चलाए गए थल और वायुसेना अभियान में खर्च कर डाला। इसमें उत्तरी वजीरिस्तान और पाक-अफगान सीमांत क्षेत्र शामिल हैं।
अपनी यादों पर आधारित किताब ‘ए प्रॉमिस्ड लैंड’ में पूर्व राष्ट्रपति ओबामा ने 1-2 मई, 2012 की अफगानिस्तान यात्रा का जिक्र करते हुए वहां की परिस्थितियों के बारे लिखा है-‘एक बहुत सम्माननीय पूर्व सीआईए अधिकारी ने बताया था कि कैसे पाकिस्तानी सेना/आईएसआई न केवल पाक-अफगान सीमा के निकट स्थित क्वेटा में रह रहे तालिबान नेतृत्व की मौजूदगी में सहयोग कर रही है बल्कि अफगान सरकार को कमजोर करने के लिए अंदरखाते उनकी मदद भी कर रही है, साथ ही पाकिस्तान अपने पुराने प्रतिद्वंद्वी भारत का प्रभाव अफगानिस्तान में सीमित करने के लिए भी ऐसा कर रहा है।’ ओबामा आगे लिखते हैं-‘अमेरिकी सरकार ने लंबे समय तक अपने इस कथित सहयोगी, जिसको खरबों डॉलर सैन्य और आर्थिक मदद में दिए थे, उसके दोहरे चरित्र को सहा है, इस जानकारी के बावजूद कि हिंसक अतिवादियों के साथ उसकी मिलीभगत है, और वह मुल्क जिसका रिकार्ड बतौर एक गैर जिम्मेवार परमाणु शस्त्र बनाने वाले देश का रहा हो, यह बात अमेरिकी विदेश नीति में विसंगतियों के बारे में बताती है।’ पाकिस्तान के इस दोहरे किरदार के बारे में पता होने के बावजूद ओबामा यहां बचाव की मुद्रा में दिखाई देते हैं, जब उन्होंने पाकिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति आसिफ अली जरदारी को एेबटाबाद में की गई अमेरिकी छापामार कार्रवाई में बिन लादेन को मार गिराने के बारे में औपचारिक रूप से बताया था तो लगता नहीं कि उन्होंने आतंकियों के मास्टमाइंड ओसामा को पाकिस्तान में सुरक्षित ठिकाना मुहैया करवाने को लेकर रोष प्रकट किया होगा, वह भी राजधानी इस्लामाबाद के पास स्थित छावनी से सटे उस इलाके में, जहां पाकिस्तानी डिफेंस एकेडमी स्थित है!
पाकिस्तान अब अजीब स्थिति में है। वहां सत्ता और फौज में हावी पंजाबियों को बलूचिस्तान में लगातार विद्रोह का सामना करना पड़ रहा है, जहां प्रतिरोध और प्रदर्शनों को कुचलने के प्रयास असफल रहे हैं। पिछले कुछ दशकों से पश्तून बहुल खैबर पख्तूनवा प्रांत में भी विद्रोह का सामना कर पड़ रहा है, हालांकि पाकिस्तानी सेना में बड़ी संख्या में पश्तून हैं। 16 दिसंबर 2014 को तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान (टीटीपी) के 6 बंदूकधारियों ने पेशावर स्थित आर्मी पब्लिक स्कूल पर आतंकी हमला किया था। सभी आतंकी विदेशी मूल के थे, जिनमें 1 चेचन्या से, 3 अरबी और 2 अफगान थे। इन्होंने स्कूल में दाखिल होकर अध्यापकों और बच्चों पर अंधाधुंध गोलीबारी की थी। कुल मिलाकर 149 लोग मारे गए थे, जिसमें 132 बच्चे थे, जिनकी उम्र 8 से 18 साल के बीच थी। तत्कालीन पाकिस्तानी सेनाध्यक्ष राहिल शरीफ ने इसका प्रतिकर्म करते हुए पाकिस्तानी थल और वायु सेना के जरिए उत्तरी वजीरिस्तान के जनजातीय इलाके पर भीषण बमबारी करवाई थी।
अल ज़ज़ीरा ने बताया था कि लगभग 10 लाख लोगों को अपने घर बार छोड़ना पड़ा, हालांकि पाकिस्तान सरकार ने इस कार्रवाई को अल-कायदा, तालिबान और इस्लामिक मूवमेंट ऑफ उजबेकिस्तान की मौजूदगी को नेस्तनाबूद करने में ‘आखिरी धक्का’ बताया था, जिन्हें पिछले 14 सालों से वजीरिस्तानी जनता झेल रही थी। स्थानीय लोगों को अपनी घर वापसी की आस निकट भविष्य में कम ही है। हजारों घर और कामधंधे हवाई बमबारी और बुलडोजरों के जरिए मटियामेट कर दिए गए। दक्षिणी वजीरिस्तान में भी पाकिस्तानी सैनिकों ने वर्ष 2009 में बड़े पैमाने पर निर्मम कार्रवाई की थी। इसमें भी हजारों लोगों को अपने घर छोड़कर भागना पड़ा था। उत्तरी वजीरिस्तान में आईएसआई अपने चेले हक्कानी नेटवर्क के आतंकियों को अफगान सेना पर सीमापारीय हमले करने में भी मदद करती है।
अफगानिस्तान का बड़ा भूभाग तालिबान के कब्जे में है, जहां से वे राजधानी काबुल तक भी लगातार हमले करते रहते हैं। निवर्तमान राष्ट्रपति ट्रंप अफगानिस्तान में अमेरिकी सेना की मौजूदगी को 4500 से घटाकर 2500 करने के लिए दृढ़संकल्प थे, जबकि तालिबान अमेरिकियों द्वारा वांछित शांति स्थापना को तैयार नहीं है। खुद अफगान सरकार एकमत नहीं है। राष्ट्रपति अशरफ गनी ने अपने पूर्व डिप्टी अब्दुल्ला-अब्दुल्ला को दोहा में तालिबान से वार्ता करने को अधिकृत किया। उन्होंने हाल ही में पाकिस्तान और भारत की यात्रा की थी। आईएसआई दिखावा कर रही है कि वह अफगानिस्तान में शांति बनाने को तालिबान पर अपने प्रभाव का इस्तेमाल कर रही है। वास्तव में वह तालिबान को उकसा रही है ताकि समूचे अफगानिस्तान के ज्यादा से ज्यादा इलाके पर उनका कब्जा हो जाए। अमेरिका को इस बात पर राजी करना होगा कि अफगानिस्तान में तालिबान से निपटने हेतु सघन हवाई बमबारी फिर से शुरू करे।
यहां याद रखने की जरूरत है कि अधिकांश अफगान नागरिक पश्तून बहुल तालिबान और उसके गुरु आईएसआई को नापसंद करते हैं। अफगानिस्तान की गैर-पश्तून बहुसंख्यक आबादी ताजिक, हजारा, उजबेक, तुर्कमानी, बलूच और अन्य जातियों से मिलकर बनी है, जो कुल जनसंख्या का 59 प्रतिशत हैं, और इन लोगों ने अमेरिकी पदार्पण से पहले ‘नार्दन एलाएंज़’ के झंडे तले तालिबान के साथ लड़ाई लड़ी थी। अमेरिका को प्रेरित किया जाना चाहिए कि तमाम जनजातियों में एकता करवाकर संयुक्त मोर्चा बनवाए। अफगान सरकार के अलावा ऐसे नेता हैं, मसलन पूर्व राष्ट्रपति हामिद करज़ई और अब्दुल्ला-अब्दुल्ला, जो उक्त तालिबान-पाकिस्तानी सेना गठजोड़ के विरुद्ध विभिन्न जातियों के बीच एकता बनाने में ‘पुल’ का काम कर सकते हैं। अफगान लोग तालिबान का राज नहीं चाहते। पश्तूनों की एक बड़ी संख्या में यह बात बलवती है कि भारत पर ब्रिटिश औपनिवेशिक राज के दौरान सीमा के तौर पर चिन्हित की गई डूरंड रेखा नाजायज थोपी गई है। लेखक को अपने एक पश्तून मित्र की बताई बात याद आ रही है, उसने कहा था कि अफगानिस्तान की वास्तविक रिवायती सीमा मौजूदा डूरंड रेखा न होकर सदियों से अटक नामक जगह पर बहते दरिया सिंधु नदी के किनारों से चिन्हित रही है।
लेखक पूर्व राजनयिक हैं।