अश्विनी कुमार
इक्कीस अक्तूबर को भारत में भी ‘विश्व गरिमा दिवस’ मनाया गया, इस मौके पर थॉमस पायने की मशहूर पंक्ति याद आ रही है ‘…महत्व वाले ध्येय पाने के प्रयासों पर अक्सर दैवीय कृपा नहीं होती’ अर्थात् कड़े प्रयासों से प्राप्ति होती है।
विडंबना है कि आजादी के सात दशक में राष्ट्रीय आकांक्षाओं के निर्धारण में हमारा इतिहास त्रुटियों से भरा रहा है और यदि कोई हमसे इसको लेकर जवाबतलबी करे तो जायज है। विश्व भूख-सूचकांक में 14 करोड़ कुपोषित बच्चों वाला भारत 107 मुल्कों की सूची में 94वें पायदान पर है।
देश में निर्बाध होते बलात्कार, एनकाउंटर में मारना, हिरासत में यातना, बुजुर्गों-बच्चों से दुर्व्यवहार, मानवाधिकार हनन के बेरोकटोक मामलों के नतीजे में बहुसंख्यक वंचित समाज की गरिमा और ज्यादा हाशिए पर सरक गई है। बाहुबली बने राज्य द्वारा नागरिक की मूल स्वतंत्रता को घटाते जाना बंधुत्व बनाने का वह संवैधानिक वादा, जिसके तहत व्यक्ति की निजी गरिमा बरकरार रखना मुख्य अवयव है- इसका मखौल बनाना है। हालांकि, सर्वोच्च न्यायालय ने नवतेज जौहर मामला (2018) में अनुच्छेद 21 (‘नागरिक को जीने का हक है’) का हवाला देते कहा है : ‘गरिमा का अभाव होना उस ध्वनि जैसा है… जिसे सुना नहीं जा सकता।’ परंतु आज व्यक्ति की गरिमा का अनेकानेक रूपों में होता हनन एक दुखद हकीकत है।
कार्यपालिका और न्यायपालिका की भूमिका वाले हालिया दूरगामी महत्व के प्रसंगों में जिस तरह संविधान में प्रदत्त ‘गरिमा का वादा’ को बढ़ावा देने में इनकी संस्थागत असफलता रही है, उसे देखकर चिंता होती है। एक अभूतपूर्व पत्र में आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री ने सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश को पत्र लिखकर शिकायत की है कि एक वरिष्ठ जज महोदय, जो आंध्र प्रदेश न्यायालय के कुछ न्यायमूर्तियों के कामकाज की नजरसाज़ी करते हैं, उन्होंने उनके काम में दखलअंदाजी कर सूबे की उच्च न्यायपालिका की संस्थागत शुचिता एवं गरिमा को ठेस पहंुचाई है। मामला सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के विचाराधीन आ गया तब इस संवेदनशील विषय पर अपना पत्र सार्वजनिक करके मुख्यमंत्री ने न्यायिक अधिकारियों के साथ अन्याय किया है। जहां एक ओर संबंधित न्यायाधीश पदग्रहण करते वक्त ली गई शपथ की गरिमा बचाने को बाध्य हैं, वहीं मुख्यमंत्री खुद संवैधानिक अनुशासन का पालन करने से बच नहीं सकते और उनसे सत्यपरायणता के उच्च मानदंड निभाने की अपेक्षा है। लेकिन क्या सिर्फ मुख्यमंत्री के खिलाफ आपराधिक अवमानना का मामला दर्ज करवा देने भर से उच्च न्यायालय की गरिमा वापस आ जाएगी? मुख्यमंत्री की हरकत में साफ बदनीयत दिखाई देती है, इसको आधार बनाकर केवल आपराधिक अवमानना का मामला बनाने से ही साख और नैतिकता बहाल करने हेतु दंडात्मक कानूनी कार्रवाई पूरी हो जाएगी? बरादाकांता मिश्रा मामले (1974) में आए फैसले की एक पंक्ति के मुताबिक : ‘क्या अवमानना का मामला’ एकदम स्पष्ट और वाजिब शुबाह से परे है या नहीं’। उसका निर्धारण, मुलगांवकर मामले 1978 में कही पंक्ति : ‘लक्षणों के खुलासे से पता चलती मनोस्थिति … जो संवैधानिक एवं अन्य सोच-विचार का पुंज है’, इसे हो सकता है।
‘जटिल स्थिति का विश्वसनीय समाधान वास्तव में ज्ञान की बुद्धिमता और संवैधानिक न्याय को बढ़ावा देने में अंतर-संस्थागत समर्था का इम्तिहान है। यह एक संयमित और ‘जज-ज्यूरी-जल्लाद’ से मिलकर बना, किंतु कभी-कभार इस्तेमाल होने वाला, असामान्य अधिकार क्षेत्र है (एससीबीए 2008), जो ‘राजसी उदारवाद’ की छाया में अवमानना की वैधता में इजाफा करता है, और हाल तक, अदालत का पसंदीदा तरीका था’ (मुलगांवकर 1978, विजय कुर्ले, 2020)
‘ऐसा इसलिए क्योंकि उच्च न्यायपालिका की शक्ति और गरिमा, संवैधानिक सिद्धांतों का संरक्षक होने के नाते, न्यायाधीशों की अतिशय शक्तियों पर आधारित न होकर, दिए गए न्याय और शुचिता वाले दृष्टिकोण से उपजी श्रद्धा एवं सम्मान पर टिकी होती है’ (बरादाकांता मिश्रा मामला)।
न्यायपालिका की प्रतिष्ठा इसकी नैतिक सच्चाई में निहित है। न्यायालय की महानता निष्पक्षता, सततता और फैसलों में दिखाई बौद्धिक ईमानदारी में होती है और इन पर सार्वजनिक परीक्षण और निष्पक्ष टिप्पणी के लिए खुलापन अवश्य रखा जाना चाहिए। न्यायपालिका की साख, अंतिम विश्लेषण में, इस तरह काम करने में है कि फैसले समाज की नब्ज को छुएं और उन्हें लगे कि दिया गया इंसाफ मानो साझा समस्याओं पर दिया गया है। हालांकि, न्यायिक अतिशयोक्ति और न्यायिक उदासीनता, दोनों ही, न्यायपालिका की प्रतिष्ठा के लिए घातक हैं।
बेलगाम मीडिया, विशेषकर इलेक्ट्रॉनिक्स और सोशल, अनुच्छेद 21 में प्रदत निष्पक्ष सुनवाई और कानूनी प्रक्रिया के वादे को सरासर धत्ता बताता है। सर्वोच्च न्यायालय ने अपने फैसलों में समांतर मीडिया-मुकदमा चलाने पर पाबंदियां लगाई हैं, क्योंकि इससे न्याय की प्रक्रिया पर असर पड़ता है। फिर भी सर्वोच्च न्यायालय की आंखों के सामने ढिठाई से यह लोग अपना अवैध काम जारी रखे हुए हैं। सुशांत सिंह राजपूत और कंगना रनौत वाला प्रसंग इस विद्रूपता की मिसाल है।
कुछ मामले जिनमें सर्वोच्च न्यायालय ने गहरे और जीवंत फैसले दिए हैं : एम नागराज (2006), केएस पुत्तुस्वामी (2017), रोमिला थापर (2018), नाम्बी नारायण (2018), नवतेज जौहर (2018), तहसीन पूनावाला (2018) इत्यादि। इन सब में व्यक्ति की गरिमा बरकरार रखने को सर्वप्रथम संवैधानिक सिद्धांत बताया है, परंतु लगता है यह पवित्र संवैधानिक घोषणा महज दोहराने भर को रह गई है। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा सुनाए गए फैसलों को लागू करवाने में संस्थागत अक्षमता– जिसके बिना न्याय की घोषणा बेमानी है– इससे न्यायपालिका की साख पर आंच आई है।
‘लग रहा है सर्वोच्च न्यायालय ने कानून की अनुरूपता, निष्पक्षता, आवश्यकता और प्रकाशन का प्रसार मुल्तवी रखने वाले सिद्धांतों की अवहेलना को रोजमर्रा की बात मानकर चुपचाप स्वीकार कर लिया है, सुनवाई के दौरान मीडिया की बेजा कवरेज के संबंध में यह असहनीय है’ (आर राजागोपाल 1962, सहारा 2012)।
रोमिला थापर मामले में न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने खंडपीठ से असहमति जताते हुए दिए अपने फैसले में स्वागतयोग्य टिप्पणी की थी : ‘परंतु न्यायिक फैसलों के बुलंद शब्दों वाले फरमान जनता के लिए तब तक बेमानी हैं जब तक कि मानव-स्वतंत्रता बरकरार रखने की संवैधानिक मुहिम नागरिक को न्याय सुनिश्चित करवाने में परिवर्तित नहीं हो जाती… अदालतें संवैधानिक सरोकारों को रौंदकर व्यक्ति की निजी गरिमा को सुरक्षित रखने की चिंता से विमुख नहीं हो सकती।’
सर्वोच्च न्यायालय को खुद अपने दिए फैसलों को याद रखना होगा : ‘अदालत द्वारा कानून की घोषणा के अधिकार में इसका अनुशासित पालन करवाना अंतर्निहित है’ (बरादाकांता मिश्रा)
उम्मीद करें कि मीडिया-मुकदमों को लेकर ऊंची अदालतों में लंबित कई मामलों में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा कालांतर घोषित किए गए कानून को लागू करने के लिए एक प्रभावशाली क्रियान्वयन तंत्र स्थापित किया जाएगा।
लेखक पूर्व केंद्रीय न्यायमंत्री हैं।
ये लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं।