गुरबचन जगत
मेरी कॉलेज की पढ़ाई 1950 के दशक के आखिरी वर्षों और 1960 के आरंभिक सालों के दौरान हुई थी। वे दिन थे जब हम चाय-कॉफी की अंतहीन प्यालियों की चुस्कियां भरते हुए हथोड़ा-दराती वाले मार्क्सवाद, समाजवाद और क्रांति जैसे विषयों पर खूब चर्चा किया करते थे। तब हमें लगता था कि वामपंथ में कुछ भी गलत नहीं है और पूंजीवाद में कुछ भी सही नहीं है। अमेरिका की बात करना नागवार था, यहां तक कि जिक्र करना भी पाप था। हालांकि जब कोई इनसान बदलते वक्त और दुनिया के साथ बड़ा होता है, नौकरी पा लेता है, अपना खुद का परिवार बना लेता है तो यथार्थ से आंखों पर चढ़ा युवावस्था का वह गुलाबी शीशे वाला चश्मा खुद-ब-खुद उतर जाता है। लेकिन फिर भी यदा-कदा मानस पटल पर उस पुरानी सोच की हल्की गुलाबी आभा उभर आती है। नेहरू जी और उनके आदर्शलोक वाले विचार के अवसान के बाद जल्द ही उनकी जगह व्यावहारिक, राजनीति प्रेरित और खुदगर्ज राजनेताओं ने ले ली। देश के संस्थानों की संप्रभुता का क्षरण शुरू हो गया और कार्यपालिका, न्यायपालिका और विधायिका की पारदर्शिता धीरे-धीरे घटने लगी। 1980 के दशक से शुरू हुआ यह न थमने वाला सिलसिला आखिर में आज की मौजूदा स्थिति तक आन पहुंचा है।
व्यवस्था का अंग होने के नाते–बतौर सक्रिय भागीदार और असहाय दर्शक–लोकतांत्रिक मूल्यों की स्थिरता देखने को जब कोई अन्य मुल्कों का आकलन करे, खासकर अमेरिका, यूके और यूरोप के लोकतांत्रिक देश, तो पाते हैं कि उनकी व्यवस्था में सब कुछ खराब नहीं है, विशेषकर रोजमर्रा की जिंदगी से जुड़ा प्रशासनिक तंत्र। भले ही आप उनकी आर्थिक नीतियों से असहमत हो सकते हैं लेकिन उनके राजकाज के तौर-तरीके काबिलेतारीफ हैं।
अपने चार साल के कार्यकाल में अमेरिका के पिछले राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने लगभग तमाम प्रशासनिक और विधिक नियमावली को धता बताया था, रिवायतों को तोड़ा और पद की ताकत का दुरुपयोग किया। संक्षेप में, व्यवस्था को तोड़ने-मरोड़ने में जो कुछ किया जा सकता था, वह उन्होंने किया और राष्ट्रपति पद को पूरी तरह से राजशाही सरीखा व्यक्तिगत राज बना डाला। उन्होंने अपने परिवार के सदस्यों को महत्वपूर्ण पद दिए। जब दिल किया, किसी वरिष्ठतम अधिकारी को निजी सनक के चलते हटा दिया। संस्थाओं की संप्रभुता का हनन किया और सीनेट को अपने ध्येयों के लिए इस्तेमाल किया। उनके इस पागलपन का विशेष मनोरथ था और तमाम संस्थानों पर अपनी छाप लगाने लगे थे, ऐसा करके वे अगले कार्यकाल के लिए बिसात बिछा रहे थे। संभवतः बेटी इवांका के रूप में राष्ट्रपति पद को पारिवारिक गद्दी बनाना चाहते थे।
हालिया राष्ट्रपति चुनाव प्रचार कुत्सित रहा और ट्रंप अमेरिका भर में मंचों पर उस दंभी की भांति भाषण झाड़ रहे थे, जिसे अपनी जीत पर पूर्ण विश्वास था। प्रचार के दौरान उन्होंने न तो मौजूदा कोविड-19 वैश्विक महामारी की परवाह की और न ही अपने वैज्ञानिकों से सलाह की। जब उन्हें आसन्न हार का संकेत मिलने लगा तो चुनाव में धांधली होने का राग अलापना शुरू कर दिया और मतदान प्रक्रिया को गलत बताने के लिए बाकायदा एक मुहिम शुरू कर दी, विशेषकर डाक से हुए मतदान को लेकर। उन्होंने मतदान करवाने वाले उन अधिकारियों और राज्यपालों की ईमानदारी पर सवाल उठाना शुरू कर दिया, जिन्होंने चुनाव प्रक्रिया की निगरानी की थी और परिणामों को मान्यता दी थी। प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर टिप्पणियां करते वक्त उनकी भाषा पहले से अधिक तुर्श और अभद्र होती गई। उनसे प्रभावित रहे कट्टर समर्थक इस कुप्रचार पर विश्वास करने लगे और चुनावी मशीनरी पर दबाव बढ़ने लगा।
तथापि चुनाव करवाने वाले कर्मी अपना फर्ज निभाने से नहीं डिगे और देशभर में चुनावी धांधली का कोई सबूत सामने नहीं आया। जिन राज्यों में हार मिली, उनमें बहुतों में राज्यपाल और वरिष्ठ अधिकारी रिपब्लिकन पार्टी के थे। उनको यह श्रेय जाता है कि किसी एक ने परिणामों को उलटा नहीं। यहां पर सफलता न मिलती देख ट्रंप ने दुबारा मतगणना करवाने का शिगूफा छेड़ दिया, जो की गई, लेकिन नतीजे पहले वाले ही मिले। फिर उन्होंने अदालतों का रुख किया और अधिकारियों द्वारा धांधली की शिकायत कर दी। पहले कदम के तौर पर संघीय न्यायालयों में केस दायर करना चुना गया, लेकिन तमाम, लगभग 60 न्यायाधीशों ने, उनकी अर्जी को सबूतों के अभाव के कारण खारिज कर दिया। इन जजों में कुछ की नियुक्ति ट्रंप प्रशासन ने की थी, लेकिन उन्होंने भी कोई झुकाव नहीं दिखाया। आखिर में वे सर्वोच्च न्यायालय पहुंचे, जहां पर तीन जज उनके द्वारा नामांकित किए हुए हैं और तीन की नियुक्ति रिपब्लिकन गवर्नरों की अनुशंसा पर हुई है। किंतु सर्वोच्च न्यायालय ने भी सच का साथ दिया और ट्रंप की याचिका को रद्द कर दिया।
यहां लब्बोलुबाब है ः एक तानाशाह बन बैठे राष्ट्रपति और उसके उद्दंड अंध-समर्थकों वाले परिदृश्य में, जहां धमकियां और लालच दिए गए, अमेरिकी चुनाव तंत्र ने संविधान के मुताबिक अपना फर्ज निभाया। मतगणना अधिकारी, वरिष्ठ अफसरान, सूबों के राज्यपाल, न्यायपालिका, सशस्त्र बल और यहां तक कि उपराष्ट्रपति ने भी संविधान के प्रति ली अपनी शपथ से समझौता न करने को चुना और अपनी अंतरात्मा की आवाज सुनी। एक भी व्यक्ति न तो गलत मांग के सामने झुका और न ही अपना फर्ज निभाते समय किसी की तरफदारी की। मैं इन सबको और इन्हें बनाने वाली व्यवस्था को सलाम करता हूं और साथ ही वहां के मीडिया को भी।
ट्रंप के पूरे कार्यकाल के दौरान मीडिया को अपनी साख और पेशेवराना फर्ज निभाने पर नाना प्रकार की गालियां और जिल्लत सहनी पड़ी है। फिर भी वह तथ्य दिखाने और अपनी बेबाक टिप्पणियां करने से डरा नहीं। अब यदि इसका मिलान अपने देश भारत सरकार, हमारे संस्थानों, न्यायपालिका, मीडिया से करें तो बॉब डिलन के शब्दों में :-
कितनी मर्तबा कोई नजरें फेर सकता है
दिखावा करे कि उसने कुछ नहीं देखा है
ऐ दोस्त, जबाव है, खुद हवा में बहक चुका है
हमारे यहां सत्ताधारी दल का अपना एक एजेंडा है, जिसको उसने दशकों पहले जाहिर कर दिया था। हालांकि वह राजसत्ता पर लोकतांत्रिक ढंग से चुनकर आई पार्टी है और कानूनन बहुत कुछ बदलने का हक रखती है। तथापि गर बदलाव सिरे से अलग प्रकृति के हो तो इन पर पहले संसद में बाकायदा चर्चा होनी चाहिए थी और संसदीय प्रक्रिया का सम्मान किया जाता। इतने बड़े बदलाव करते वक्त नागरिकों को भी भरोसे में लेना चाहिए था और एकतरफा अध्यादेश एवं कानून लागू करने से गुरेज किया जाता। आज सदन में एक मजबूत विपक्ष की आवाज के अभाव में सरकार संसद में अपने भारी बहुमत के बल पर मनमर्जी थोप रही है।
मुक्त चर्चा करना किसी लोकतंत्र का मूल आधार होता है और इस खासियत से वर्तमान केंद्र सरकार और अधिकांश मीडिया बेतरह महरूम है। न्यायपालिका और कार्यपालिका लोकतंत्र के दो ऐसे स्तंभ हैं जो न्याय, शुचिता और निरंतरता सुनिश्चित करते हैं – लेकिन इनको अपनी मौजूदा कारगुजारी पर आत्मविश्लेषण करने की जरूरत है। एक स्वतंत्र मीडिया, न्यायपालिका और अफसरशाही किसी भी गणतंत्र को सार्थक बनाए रखने के लिए जरूरी निगहबान होते हैं और इन्हें अपनी आज़ादी बरकरार रखनी चाहिए।
यद्यपि अभी भी हमने सब कुछ नहीं खोया है और अंत में लोग ही अपने भाग्यविधाता होते हैं, जैसा कि आज की तारीख में किसानों ने अपने शांतिपूर्ण आंदोलन से दिखा दिया है। उन्होंने अपना रोष जताया है और सरकार को रास्ता निकालने की समझदारी दिखानी चाहिए। यहां सनद रहे कि किसान का कोई विशेष संप्रदाय, जाति या वर्ण नहीं होता। यह धरती मां और प्रकृति है जो उनको पालती है और बदले में वह पूरी मानव जाति को भोजन मुहैया करवाता है। कृषक खेतों में खटता है और देश की सेवा करता है, आमतौर पर आसानी से न तो कोई शिकायत करता है, न ही अपने काम की डींगे हांकता है। हां, जब धकेलकर उसकी पीठ दीवार के साथ लगा दी जाए तब उसे अन्याय अस्वीकार्य होता है। यह ‘अन्नदाता’ प्रकृति का बेटा है और उसकी मौन शिक्षा को मार्गदर्शन समझकर अपनी राह चुनता है। प्रकृति ने उसे सिखाया है कि कैसे सहनशील रहा जाए और कैसे मुश्किलों का सामना करना है, तभी तो उम्मीद बाकी है। आज किसान ने देश को आईना दिखाया है और लोगों को इसमें अपना भावी मंजर देखने को कह रहा है। अच्छी बात यह है कि जहां पंजाबी किसानों ने पहल करते हुए रास्ता दिखाया है वहीं अब बाकी धरती-पुत्रों ने मशाल थाम ली है। सरकार उसके साथ प्यार और इज्जत से पेश आए वरना कील-कांटेदार दीवारें खड़ी करना कोई उपाय नहीं है।
लेखक मणिपुर के राज्यपाल, यूपीएससी के अध्यक्ष एवं जम्मू-कश्मीर में पुलिस महानिदेशक रहे हैं।