हर्षदेव
विश्व की अत्यंत प्राचीन और समृद्ध सभ्यता वाला देश लेबनान आज अपने वजूद को बचाने की लड़ाई लड़ रहा है। आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक तौर पर पूरी तरह बर्बादी का सामना कर रहे लेबनान को कभी सम्पन्न देशों में अग्रणी माना जाता था। ऐसा भी समय था जब दुनिया के सैलानी लेबनान और खासकर बेरूत यात्रा का ख्वाब देखा करते थे। आज वहां इमारतों के खंडहर हैं, वे मलबे में तबदील हो चुकी हैं। लेबनान का 1975 तक का वक्त सुनहरा रहा। तब वह दुनिया की आर्थिक ताकत हुआ करता था। उसकी मुद्रा (लेबनानी डॉलर) अमेरिका के डॉलर और ब्रिटिश पौंड से टक्कर लेने की सामर्थ्य रखती थी। आज वहां एक अमेरिकी डॉलर की कीमत 1600 लेबनानी डॉलर के बराबर है।
लेबनान पर कुदरत बेहद मेहरबान रही। वहां एक हिस्से में अच्छी खासी बर्फबारी होती है तो दूसरा खूब गर्म रहता है। उसके पास भूमध्य सागर का विशाल तट है। सफेद और साफ-सुथरी रेत के तट दूर-दूर तक खूबसूरत नीले समंदर में मिलकर दिलकश नजारा पेश करते थे। वहीं जैतून के हजारों हेक्टेयर के विशाल जंगल और खजूर के फार्म एक अनोखे मंजर से दो-चार कराते थे। आज वे सब बर्बादी की दास्तान सुना रहे हैं। बेरूत एक समय दुनिया में सोने की सबसे बड़ी मंडियों में गिना जाता था। आज हालात ये हैं कि लोगों को दो वक्त का खाना नसीब नहीं है।
लेबनान में 1960 में मुस्लिम आबादी 30 प्रतिशत थी। इसमें 15 प्रतिशत शिया और इतने ही सुन्नी होते थे। अगले डेढ़ दशक में यह आबादी बढ़कर 54 फीसद हो गई। इसमें शिया-सुन्नी का अनुपात बढ़कर 27-27 फीसद हो गया। इसी समय इस धर्मनिरपेक्ष देश ने अपना चरित्र बदलने का फैसला किया। अपनी सर्वधर्म समभाव की पहचान को त्यागकर लेबनान की बड़ी आबादी ने इस्लामी मुल्क बनने की जिद ठान ली। इसकी प्रेरणा उसे ईरान में कट्टरपंथियों के सत्ता तक पहुंचने के कारण मिली। शरिया कानून को लागू करने की मांग ने जोर पकड़ा और वह हिंसा में बदलने लगी। 1975 बीतते-बीतते लेबनान में एक सीमित गृह युद्ध शुरू हो गया।
लेबनान दुनिया के ऐसे कुछेक देशों में शुमार है जहां बहुत बड़े पैमाने पर आबादियों की अदला-बदली की गई। 1978 में ईरान में मौलाना अयातुल्ला खुमैनी के सत्ता संभालने के बाद जब मुल्क में मारकाट बहुत बढ़ गई तो संयुक्त राष्ट्र संघ ने हस्तक्षेप किया। उसके सुझाव पर ईसाइयों को एक अलग इलाके में बसाया गया और मुस्लिमों के लिए उनसे दूर दूसरी जगह रहने की व्यवस्था की गई। राजधानी बेरूत में भी आबादी की नए सिरे से बसावट की गई। ईसाई और मुसलमानों का अलग-अलग इलाकों में रहना तय किया गया।
कुछ समय बाद मुसलमानों के शिया और सुन्नी खेमे टकराने लगे। शियाओं ने हिजबुल्ला नाम से दुनिया का सबसे खतरनाक आतंकवादी संगठन बना लिया। यह गुट घात लगाकर सुन्नियों को निशाना बनाने लगा । नतीजतन, सुन्नियों की बहुत बड़ी आबादी सऊदी अरब भाग गई। हिजबुल्ला को अपनी गतिविधियों के लिए ईरान और सीरिया की हिमायत लगातार हासिल होती रही।
मात्र 70 लाख की आबादी वाले लेबनान में आज शासन व्यवस्था पूरी तरह ठप है। प्रधानमंत्री इस्तीफा दे चुके हैं और देश की बागडोर संभालने के लिए कोई भी सियासी ताकत सामने आने के लिए तैयार नहीं है। अगस्त महीने के शुरू में बेरूत बंदरगाह के नजदीक करीब 4 लाख टन अमोनियम नाइट्रेट के विशाल गोदाम में जो भयानक विस्फोट हुआ, उसने सैकड़ों बेकसूरों की जान ले ली, हजारों बेघर कर दिए और राजधानी बेरूत को पूरी तरह तबाह कर दिया। खबर यह है कि अमोनियम नाइट्रेट का इतना बड़ा जखीरा हिजबुल्ला ने इस्राइल पर हमले के लिए जमा किया था और इसकी भनक इस्राइल तक पहुंच गई।
1990 के दशक में तय हुआ कि राष्ट्रपति ईसाई, प्रधानमंत्री सुन्नी और संसद का अध्यक्ष (स्पीकर) शिया मुसलमान बनाया जाएगा। संसद में सदस्यों की संख्या (128) भी मुस्लिमों और ईसाइयों में बराबर बांट दी गई। यहां तक कि अफसरों और दफ्तरों के बाबुओं पर भी यही कायदा लागू किया गया। हुआ यह कि जब सियासत तीन गुटों में बंट गई तो वे तीनों ही अपनी ताकत बढ़ाने के लिए बाहरी शक्तियों से जायज-नाजायज सहायता बटोरने लगे। सुन्नियों ने सऊदी अरब का दामन थाम लिया तो हिजबुल्ला यानी शिया मुसलमानों ने ईरान की उंगली पकड़ ली जबकि ईसाई खेमा फ्रांस की गोद में जा बैठा।
लेबनान पर 92 अरब डॉलर से ज्यादा का कर्ज है। उसके अन्न भंडार समाप्त हो चुके हैं। भुखमरी के काले बादल लोगों पर मंडरा रहे हैं। सबसे अफसोस की बात ये है कि जिस धर्म के लिए शिया, सुन्नी और ईसाई आपस में लड़ते रहे, उसी धर्म ने उनकी खुशहाली छीन ली। लेबनान का पूरी दुनिया को बुनियादी पैगाम यही है कि सियासत के साथ मजहब का तालमेल खुशहाली की तरफ नहीं ले जाता।