एक समय एक जगह पर श्रीकृष्ण, कर्ण एवं अन्य योद्धा बैठे थे। बैठक समाप्त होने पर श्रीकृष्ण ने कर्ण को अपने रथ पर आने के लिए आमंत्रित किया, जिसे कर्ण ने स्वीकार किया। श्रीकृष्ण बोले, ‘कर्ण, तुम पांडवों के समर्थन में आ जाओ तो सही होगा। तुम्हें ज्ञात है कि तुम कुंती पुत्र हो और युधिष्ठिर भी तुम्हें ज्येष्ठ भ्राता मानकर उचित स्थान देने को तैयार हो जाएगा।’ कर्ण ने कहा, ‘हे श्रेष्ठ! कुंती ने भी उसको यह यकीन दिलाया है और मैं जानता हूं कि युधिष्ठिर भी यथार्थ की जानकारी होने पर वास्तविकता को स्वीकार कर मुझे उचित स्थान देने पर तत्पर होंगे, लेकिन यह भी जानता हूं कि दुर्योधन ने मुझे अंगराज देश का राज्य देकर राजा का सम्मान दिया। मैं इसे कभी भी भूल नहीं सकता। मुझे यह भी पता है कि अंत में विजय पांडवों की ही होगी क्योंकि वह सत्य के पथ पर हैं। फिर भी दुर्योधन की कृतज्ञता के लिए मैं उसके साथ विश्वासघात नहीं कर सकता।
प्रस्तुति : सतबीर सिंह