नीरोत्तमा शर्मा
ईश्वर की अनुकम्पा एवं प्रकृति का नैसर्गिक सौन्दर्य, देवभूमि हिमाचल में पदार्पण करने वाले प्रत्येक प्राणी को अभिभूत कर देता है। इसी आकर्षण में बन्ध कर देश-विदेश से सैलानी हिमाचल के सुगम व दुर्गम तीर्थस्थलों की यात्रा पर निकलते हैं। आध्यात्मिकता से परिपूर्ण हिमाचल के चप्पे-चप्पे पर निराकार व साकार प्रभु की उपस्थिति की अनुभूति होती है। ऐसा ही एक अलौकिक तीर्थस्थल है– ‘रेणुका जी’। सिरमौर जनपद में स्थित नाहन से लगभग 9 किलामीटर की दूरी पर स्थित ‘रेणुका जी’ का मन्दिर भारत के प्रसिद्ध बावन सिद्ध पीठों में से एक है। मन्दिर के साथ ही सटी है रेणुका झील। समुद्र तल से 672 मीटर ऊंची 3214 मीटर व्यास में फैली लेटी हुई नारी शरीराकृति के आकार वाली यह झील बहुत ही रमणीय है। झील के पूर्वी छोर से तनिक दूर दो ऊंचे पर्वत हैं। एक है ‘तपे का टीला’ अर्थात् ऋषि जमदग्नि की तपोभूमि और दूसरे को ‘कामली का टीला’ अर्थात् कपिल मुनि जी का आराधना स्थल कहा जाता है।
दीपावली के दस दिन बाद प्रबोधिनी एकादशी की पूर्व सन्ध्या पर यहां पांच दिवसीय मेले का प्रारम्भ होता है, जिसमें सम्मिलित होने के लिए देश-विदेश से लाखों भक्तगण आते हैं। लोक मान्यता के अनुसार भगवान विष्णु के छठे अवतार ऋषि जमदग्नि व मां रेणुका के पुत्र भगवान परशुराम अपनी माता को दिए गए वचन को पूरा करने हेतु अपनी मां से मिलने के लिए पधारते हैं। देवप्रबोधिनी एकादशी से एक दिन पूर्व दशमी वाले दिन भगवान परशुराम को पारम्परिक विधि-विधान से पालकी में बिठा कर ‘जमू कोटी’ गांव के प्राचीन मन्दिर से रेणुका जी के मन्दिर में लाया जाता है। इस शोभायात्रा में मन्दिर के पुजारियों के साथ आसपास के गांवों के सभी भक्तगण शामिल होते हैं और पालकी को कन्धा देकर पुण्य प्राप्त करते हैं। इस सवारी में चांदी की पालकी में भगवान की मूर्ति होती है। शोभायात्रा में ढोल-नगाड़े, करताल, रणसिंगा, दुमानु आदि पारम्परिक वाद्य यन्त्र बजते हैं। तीर-कमानों का खेल ‘ठोड़ा’ तथा स्थानीय व सांस्कृतिक नृत्य प्रदर्शित किए जाते हैं।
‘रेणुका जी’ स्थल को इक्ष्वाकु कुल के ऋषि ‘रेणु’ का पवित्र स्थान माना जाता है, उनकी कन्या थी रेणुका, जिनका विवाह भृगुवंशी महर्षि जमदग्नि से हुआ था। कहा जाता है कि ऋषि ने इसी स्थल पर भगवान विष्णु की आराधना करते हुए उन्हें पुत्र के रूप में प्राप्त करने का वरदान पाया था। भगवान विष्णु ने दिव्य वचन को पूरा किया और छठे अवतार के रूप में मां रेणुका के गर्भ से जन्म लिया। ऋषि ऋचीक ने बालक का जातकर्म संस्कार किया और नाम रखा ‘रामभद्र’। बालक राम को भगवान शिव से प्राप्त दिव्य अस्त्र ‘परशु’ में सिद्धहस्तता के कारण इन्हें परशुराम कहा जाने लगा।
पौराणिक कथाओं के अनुसार सहस्त्रबाहु नामक आततायी राजा ने छल से महर्षि जमदग्नि का वध कर दिया। माता रेणुका ने आर्त स्वर में अपने पुत्र परशुराम को पुकारा और ‘राम सरोवर’ में कूद कर जल समाधि ले ली। सरोवर ने तुरन्त नारी की आकृति धारण कर ली तभी से इसे ‘रेणुका झील’ के नाम से जाना जाता है। भगवान परशुराम ने सहस्त्रबाहु का वध किया तथा पौराणिक कथाओं के अनुसार दिव्य शक्तियों से पिता को पुन: जीवित किया और झील के किनारे आकर मां से बाहर आने की प्रार्थना की। माता पुत्र की पुकार सुन कर तुरन्त बाहर आई और पुत्र से यह वचन लिया कि वह हर वर्ष दीपावली के पश्चात अपनी माता से मिलने आया करेंगे। मिलन के उस अलौकिक पल को भक्तजन आज भी अपने हृदयों में समेटे हुए हैं। अपनी माता को दिए हुए वचन के अनुसार भगवान परशुराम प्रति वर्ष अपनी माता के दर्शनार्थ इस पावन स्थल पर पधारते हैं और भक्तों पर दिव्य आशीर्वाद की वर्षा करते हैं।