अशोक ‘प्रवृद्ध’
मोक्ष प्राप्ति के लिए चित्त और बुद्धि का समन्वय होना जरूरी है। यानी बुद्धि जो राह दिखाती है उसके अनुरूप चित्त में विचार लाने पड़ेंगे। जब हमारे विचार, हमारे कर्म और हमारी सोच विकार रहित होंगे तो हमें मोक्ष की राह मिल जाएगी। मोक्ष यानी ईश्वर से मिलन। इसका मतलब हुआ सुख-दुख से परे मानव जीवन।
मनुष्य का चित्त और बुद्धि बेहद महत्वपूर्ण हैं। ज्ञान प्रधान। कर्म प्रधान। दोनों के समन्वय से मोक्ष की ओर उन्मुख। मोक्ष अर्थात सुख-दुख से परे। चित्त और बुद्धि अगर विकार रहित हो जाएं तो ईश्वर प्राप्ति संभव है। जिसकी चित्त, बुद्धि विकार रहित है, परमात्मा का कृपा कवच ऐसे मनुष्यों की सर्वदा रक्षा करता है। चित्त का अर्थ है- ज्ञान का साधन। इसी प्रकार बुद्धि शब्द की व्युत्पत्ति बोधनात् बुद्धि से हुई है। अर्थात समस्त ज्ञान तथा विज्ञान मात्र को ग्रहण करके, विभेदों के निश्चयात्मक रूप से निर्णायक तत्व की संज्ञा बुद्धि है। माना जाता है कि हमारे वक्षस्थल के अंदर धक-धक शब्द करने वाली रक्ताशय नामक हृदय स्थान के बीच में अवस्थित शिशु के अंगूठे के पोर के समान एक पोल में चित्त का निवास स्थान है, इसी चित्त में जीवात्मा भी रहता है। इसमें निरन्तर ही स्वाभाविक गति होती रहती है। इसी के प्रभाव से हृदय में गति आरम्भ होकर सारे शरीर में नाड़ियों द्वारा फैल जाती है और चेतना का संचार हो जाता है।
चित्त जाग्रत अवस्था में ही नहीं अपितु निद्रा, सुषुप्ति तुरीया अवस्था में भी अपने कार्य में रत रहता है। बुद्धि के कार्य, पंच ज्ञानेिन्द्रयों और पंच कर्मेिन्द्रयों के कर्मों को मन के द्वारा प्राप्त करके उन्हें तर्क की तुला पर तोलकर अपनी विवेचना शक्ति की छलनी से छानकर एक स्थिर और स्पष्ट निर्णय देना और धर्म-अधर्म, पाप-पुण्य, सत्य-असत्य, भले-बुरे, ज्ञान-अज्ञान, में से सही और गलत का निर्णय देना तथा अपने स्वामी जीवात्मा के सांसारिक अभ्युदय और पारमार्थिक कल्याण के लिए सही फैसला करना है।
दरअसल जीवात्मा के लिए यह बुद्धि तत्व एक ज्योतिस्तम्भ है, पथप्रदर्शक है, महामंत्री है, सन्मार्ग पर ले जाने वाला सारथी है। वह सुहृदय परमस्नेही है, महान हितकारी तत्व है। बुद्धि के बिना मानव की आत्मा को कुछ नहीं दिखता। जीवात्मा अपने सभी कार्य प्रतिक्षण अहंवृत्ति के चित्त से कराता है। आत्मा की किरणें सबसे पहले चित्त पर पड़ती हैं। आत्मा और चित्त के संयोग से चेतना और सूक्ष्मप्राण की उत्पत्ति होती है, जिनसे जीवन की क्रियाशीलता प्रतिक्षण बनी रहती है। इसीलिए हमारा चित्त शक्ति का मुख्य केंद्र है। ईश्वर प्राप्ति अर्थात प्रभु मिलन इतना सरल नहीं है। इसके लिए चित्त की निर्मलता नितान्त आवश्यक है। पवित्र चित्त में ही परमात्मा का निवास होता है। इसलिए अपने चित्त को सर्वदा निर्मल और पवित्र रखना चाहिए। पवित्र चित्त से ही मोक्ष प्राप्त होता है। किसी अतिविशिष्ट व्यक्ति के घर में आगमन होने की सूचना पर ही घर के साथ-साथ बैठक कक्ष को सबसे अधिक सजाया जाता है, ठीक उसी प्रकार परमपिता परमात्मा जैसे अतिविशिष्ट व्यक्ति को आमंत्रण अथवा साक्षात्कार हेतु निमंत्रण के लिए अपने चित्त रूपी बैठक कक्ष को भी सुंदर सजाये जाने की आवश्यकता होती है। सारांश यह है कि यदि ईश्वर मिलन की चाह है, तो अपने चित्त को साफ रखना होगा। यह सफाई अच्छे विचारों और नेक कार्यों के जरिये ही होगी। इसीलिए तो कहा गया कि परमात्मा से मिलन तभी होगा जब मन से, वाणी से और कर्मों से स्वच्छ होंगे।
गतिशीलता से क्रियाशील
हमारा शरीर चित्त की गतिशीलता से क्रियाशील रहता है। चित्त की पवित्रता मन, बुद्धि और अहंकार का भी प्रक्षालन कर अंत:करण को पवित्र बना देती है, जिससे साधक आनंदघन को प्राप्त होता है, ब्रह्मानंद को प्राप्त होता है, मोक्ष को प्राप्त होता है। इसीलिए चित्त को कभी भी मैला नहीं होने देना चाहिए, सर्वदा धवल और पवित्र रहने वाले चित्त में ही प्रभु का वास होता है। बाहर कोई प्रसन्नता की बात होने अथवा अंदर कोई अनुभूति प्रसन्नता की होती है तो आंखों में चमक आ जाती है और चेहरा खिल उठता है, और यदि शरीर के अंदर अथवा बाहर कोई शोक, भय, तनाव, हिंसा, क्रोध इत्यादि की घटना होने पर आंखों में भय, लज्जा, होती है, चेहरा पीला पड़ जाता है, लाल हो जाता है, चेहरे का तेज घट जाता है तथा शरीर में कंपन होने लगती है, हृदय की धड़कन तेज हो जाती है, कभी-कभी तो हृदयाघात भी होता है। यह इसलिए होता है कि हमारा चित्त संवेदनाओं अर्थात इिन्द्रय जनित ज्ञान सूत्र अथवा चेतना की शक्तियों का केंद्र है, उद्गम स्थान है, जो तात्कालिक दबाव को सह नहीं पाता है। जिनकी आत्मा बलवती होती है, उनका हौसला और हिम्मत विषम से विषम परिस्थिति में भी कायम रहती है। इससे स्पष्ट है कि हमारा चित्त शक्ति का भंडार है। हमें हमेशा सत्कर्म करते रहने चाहिए।