अखिलेश आर्येन्दु
भारतीय संस्कृति और ज्ञान परम्परा में नवसंवत्सर का खास महत्व है। सृष्टि की शुरुआत इसी दिन मानी जाती है। काल गणना में अनेक तिथियां इससे जुड़ी हैं। विक्रमी संवत, शक संवत, युगाब्द संवत की शुरुआत के अलावा भगवान राम का राज्याभिषेक, महाराज युधिष्ठिर द्वारा संवत की शुरुआत, आर्यसमाज स्थापना दिवस, शालिवाहन संवत्सर का प्रारम्भ, सिंधियों के भगवान झूलेलाल का प्रकटोत्सव जैसी तमाम तिथियां इससे जुड़ी हुई हैं। इस दौरान प्रकृति की नवीनता का उल्लास चारों तरफ मौलिक और नवीन रूप में दिखाई देता है। किसानों के परिश्रम का फल मिलने यानी फसल पकने का वक्त भी यही होता है। नवरात्र या गुड़ी पड़वा नये वर्ष की शुरुआत माने जाते हैं। संवत्सर का नामकरण प्रकृति सापेक्ष होने से हम संवत्सर को प्रकृति का दर्पण कह सकते हैं। संवत्सर (वर्ष) सिर्फ अंकों का खेल नहीं है, बल्कि यह ऐसा दर्पण है जिसमें प्रकृति का हर अंग स्पष्ट दिखाई देता है। नव-संवत्सर ब्रह्मा व सृष्टि के प्रति आभार जताने की परिपाटी है। इसमें यज्ञ-हवन प्रमुख हैं।
निभानी होगी जिम्मेदारी
नव-संवत्सर में सृष्टि के विभिन्न घटकों की पूजा करते वक्त इनकी सुरक्षा का संकल्प हमारी परम्परा का महत्वपूर्ण हिस्सा है। नवसंवत्सर का संदेश है कि आदमी यदि धरती और स्व-अस्तित्व को सुरक्षित व प्रवृद्ध रखना चाहता है, तो उसे सृष्टि के विभिन्न घटकों धरती, जल, हवा आदि को प्रदूषण से मुक्त रखना होगा। नवसंवत्सर में समय को उसके विभिन्न अंगों-वर्ष, मास, तिथि, वार, नक्षत्र के साथ पूजन करने का मकसद वक्त की महत्ता को समझना व समझाना है। साथ ही अपनी धार्मिक, आध्यात्मिक और सांस्कृतिक परम्परा को आत्मसात करते हुए आगे की पीढ़ी को बताना भी है। इसमें एक महत्व की बात और छिपी हुई है- वक्त के सदुपयोग से फायदा और दुरुपयोग से नुकसान होता है।
उपवास की परम्परा
चैत्र शुक्ल प्रतिप्रदा से व्रत या उपवास की परम्परा है। ऋतु के बदलाव के कारण खास तरह का आहार-विहार करने का विधान आयुर्वेद में बताया गया है। आयुर्वेद में बारह महीनों के लिए अलग-अलग तरह के आहार-विहार बताए गये हैं। हर तीन महीने में ऋतु में बदलाव आ जाता है। चैत्र यानी अप्रैल के महीने में भी ऋतु में खास तरह का बदलाव आ जाता है। इस दौरान गर्मी बढ़ने लगती है। प्रकृति में नयापन, नया उल्लास दिखता है। इस बदलाव और इस उल्लास में कुछ संयम जरूरी बताए गए हैं।
मां के 9 रूपों में शुभता, स्वच्छता, सकारात्मकता
नवसंवत्सर के साथ ही नवरात्र का प्रारम्भ होता है। नौ दिनों में मां दुर्गा के जिन नौ रूपों की पूजा का वर्णन देवी सूक्त में किया गया है, उसमें प्रत्येक रूप में हमारे लिए सकारात्मकता, स्वच्छता और शुभता को बढ़ाने का संदेश है। शैलपुत्री योगसाधना के जरिए इंसान को अपनी चैतन्य ऊर्जा यानी जीवनशक्ति को बढ़ाने का संदेश है। दूसरे रूप ब्रह्मचारिणी के जरिए अपनी ऊर्जा को संगृहीत करके परहित में लगाने का भाव हमें बढ़ाते रहना चाहिए। चंद्रघंटा स्वरूप मन को सकारात्मकता से भरने की शक्ति देता है। प्राणिक ऊर्जा को जाग्रत करने के लिए कूष्मांडा के रूप में शक्ति को संगृहीत करते रहना चाहिए। कालरात्रि ज्ञान लक्ष्य को हासिल करने का संदेश है। कात्यायनी निरंतर शुभ संकल्प से भरे रहने का संदेश है। महागौरी अलौकिक शक्ति पर निरंतर विश्वास बनाए रखने, तो सिद्धिदात्री कार्य क्षमता में बढ़ोतरी का संदेश है। कुछ लोगों का मानना है कि योगदर्शन के अष्टांगयोग को मूर्ति के जरिए बताया गया है। नवरात्र की समाप्ति पर रामनवमी हमारे अंदर व्याप्त छह विकारों को खत्म करके शुभता, सत्यता, अपरिग्रह, निडरता, शुभ संकल्प, दया, ज्ञान, धर्म और मानव मूल्यों को जीवन में उतारने का संदेश देता है। हमारा जीवन और समाज शक्ति, सकारात्मकता, शुभता, स्वच्छता, नवीनता और आत्मानुशासन से युक्त हो, यह संदेश नवरात्र और नवसंवत्सर से हमें मिलता है। पल-पल बीतते जीवन के संग हम नित नवीन और मौलिक रूप में अपना धर्म (कर्तव्य) निभाते जाएं-यह नवरात्र और नवसंवत्सर के माध्यम से हम सीख सकते हैं। हम प्रतिपल नवीन, मौलिक और उपयोगी बनें रहें-अपने लिए और प्रकृति एवं समाज के लिए भी।