एक बार स्वामी विवेकानंद विश्व धर्म सम्मेलन के सिलसिले में शिकागो गए थे, तो वहां कुछ लोग जिज्ञासावश उनसे ‘भारत के भिखारी’ संदर्भ को लेकर बहुत प्रश्न करते थे। स्वामीजी ने एक दिन अमेरिकियों के एक सम्मेलन में कहा कि भारत में जिसने जितना छोड़ा, उसे उतना महान मानते हैं और जिसने जितना जोड़ा, उसे उतना ही निचला दर्जा दिया जाता है। आप लोग भिखारी शब्द को लेकर बहुत उत्सुक हैं, लेकिन हमारे देश में एक और शब्द भी है जो भिखारी से भी आगे है और वह है भिक्षु। भिखारी का अर्थ है – उस आदमी के पास कभी धन था ही नहीं। उसने धन को कभी जाना ही नहीं। भिक्षु का अर्थ है कि उसके पास धन था, उसने धन को खूब जाना और खूब भोगने के बाद उसे व्यर्थ जानकर छोड़ दिया। अर्थ को व्यर्थ माना तो प्रवृत्ति से निवृत्ति हो गई। भीख मांगने वालों के लिए एक ही शब्द काफी होता है भिखारी। दुनिया को दूसरा अनुभव ही नहीं था। वह विरला अनुभव केवल भारत को ही है। भारत में ही महावीर और बुद्ध जैसे महात्यागी हुए जो राजसी ठाठ-बाट में पलकर भी भिखारी बन गए। उनके पास बहुत था और वे उसे छोड़कर भिक्षु बन गए। हमारी संस्कृति में संन्यास लेने के पहले एक आवश्यक चरण है भिक्षाटन, जिससे एक ओर अहं का नाश होता है वहीं दूसरी ओर वस्तु आधारित जीवनयापन की सोच समाप्त हो जाती है।
प्रस्तुति : राजेश कुमार चौहान