एक महात्मा से किसी ने पूछा, ‘ईश्वर का स्वरूप क्या है?’ महात्मा ने उसी से पूछ दिया, ‘तुम अपना स्वरूप जानते हो?’ वह बोला, ‘नहीं जानता।’ तब महात्मा ने कहा, ‘अपने स्वरूप को जानते नहीं, जो साढ़े तीन हाथ के शरीर में मैं-मैं कर रहा है और संपूर्ण विश्व के अधिष्ठान परमात्मा को जानने चले हो। पहले अपने को जान लो, तब परमात्मा को तुरंत जान जाओगे। एक व्यक्ति एक वस्तु को दूरबीन से देख रहा है। यदि उसे यह ज्ञान नहीं है कि वह यंत्र वस्तु का आकार कितना बड़ा करके दिखाता है, तो उसे वस्तु के सही स्वरूप का ज्ञान कैसे होगा? अत: अपने यंत्र के विषय में पहले जानना आवश्यक है। हमारा ज्ञान इन्द्रियों द्वारा संसार दिखाता है। हम यह नहीं जानते कि वह दिखाने वाला हमें यह संसार यथावत् ही दिखाता है या घटा बढ़ाकर या फिर विकृत करके। गुलाब को नेत्र कहते हैं कि यह गुलाबी है। नासिका कहती है इसमें एक प्रिय सुगंध है। त्वचा कहती है, यह कोमल और शीतल है। चखने पर मालूम पड़ेगा कि इसका स्वाद कैसा है। पूरी बात कोई इंद्री नहीं बताती। सब इन्द्रियां मिलकर भी वस्तु के पूरे स्वभाव को नहीं बता पातीं।
प्रस्तुति :अंजु अग्निहोत्री