विजय सिंगल
श्रीकृष्ण वो शिक्षक हैं जिन्होंने भगवद्गीता में जीवन के आधारभूत सिद्धांतों की शिक्षा दी है। उनके उपदेश सभी जीवों पर समान रूप से लागू होते हैं, इसलिए उन्हें जगद्गुरु अर्थात् सारे विश्व के शिक्षक के रूप में देखा जाता है। वे एक प्रकट भगवान हैं। यद्यपि वे अजन्में, अविनाशी तथा समस्त सृष्टि के स्वामी हैं; फिर भी वे स्वयं को अपनी ही प्रकृति में स्थापित करके, अपनी अंतर्निहित शक्ति (योगमाया) द्वारा प्रकट होते हैं (श्लोक संख्या 4.6)। अन्य प्राणियों के विपरीत, भगवान अपनी स्वयं की शक्ति और अपनी स्वतंत्र इच्छा से ही जन्म लेते हैं। मानव जाति के उत्थान के लिए भगवान पुनः पुनः जन्म लेते हैं। परमेश्वर द्वारा मानव देह ग्रहण करने से उनकी अखंडता या पूर्णता में वृद्धि या ह्रास जैसा कोई अंतर नहीं आता।
श्रीकृष्ण को विष्णु का नौवां अवतार कहा गया है। उनका जन्म मथुरा में देवकी और वासुदेव के यहां हुआ था। रात के अंधेरे में और कारागार के बंधन में जन्म लेना एक महत्वपूर्ण प्रतीकात्मक संदेश देता है। मानव जाति के उद्धारक ने सर्वत्र व्याप्त संकट तथा घुटनभरी दासता के बीच जन्म लिया।
श्रीकृष्ण कहते हैं कि गीता में उन्होंने कोई नया उपदेश नहीं दिया है। उन्होंने सिर्फ वहीं दोहराया है जिसे वे पहले भी कह चुके हैं (श्लोक संख्या 4.1 से 4.3 तक)। इसलिए उनका संदेश किसी विशेष अवधि तक ही सीमित नहीं है। वह एक बीते युग से संबंधित व्यक्ति नहीं हैं; बल्कि अंतर में स्थित आत्मा हैं, व्यक्ति की आध्यात्मिक चेतना का प्रतिबिम्ब हैं। वह शाश्वत सत्य हैं। वह हर जगह और हर किसी में हैं। वे वर्तमान में भी हमसे बात करने के लिए उतने ही तत्पर हैं जितने कभी किसी और से रहे होंगे। इस प्रकार वे दोनों हैं- एक ऐतिहासिक पुरुष और ईश्वर का एक स्वरूप।
भौतिक साधनों की सीमाओं के कारण हमारे लिए श्रीकृष्ण को संपूर्ण रूप से परिभाषित करना बहुत कठिन है। लेकिन गीता ने अपने विभिन्न श्लोकों द्वारा इस कार्य को अपेक्षाकृत सरल बना दिया है। ग्यारहवें अध्याय में प्रदर्शित किया गया है कि सम्पूर्ण ब्रह्मांड सर्वोच्च भगवान में मौजूद है। लेकिन जो कुछ भी यशस्वी, सुंदर और ओजस्वी है; उसमें ईश्वर की उपस्थिति और अधिक प्रमुख हो जाती है।
श्रीकृष्ण विश्व के सृजनहार एवं संहारक हैं। श्लोक संख्या 9.8 में कहा गया है कि वे सम्पूर्ण प्राणियों के समूहों को बार-बार सृजित करते हैं। साथ में यह भी कहा गया है कि कोई भी चर या अचर (चलने वाला या नहीं चलने वाला) जीव उनके बिना नहीं रह सकता (श्लोक संख्या 10.39)। सम्पूर्ण जगत की क्रियाशीलता भी श्रीकृष्ण से ही है (श्लोक संख्या 10.8)। वो विभिन्न प्रजातियों के सभी जीवों के बीज देने वाले पिता हैं। इसके अलावा, श्लोक संख्या 7.6 में कहा गया है कि सभी प्राणी उनकी दो प्रकृतियों (भौतिक एवं चेतन) से ही उत्पन्न होते हैं। वे सम्पूर्ण जगत को उत्पन्न करने वाले और उसका विनाश करने वाले हैं।
आगे यह भी कहा गया है कि श्रीकृष्ण अपने एक अंश मात्र से सम्पूर्ण जगत में व्याप्त होकर इसको आधार देते हैं। वे ही सूर्यरूप में गर्मी प्रदान करते हैं। वे ही वर्षा को रोकते तथा भेजते हैं। वे अमरत्व हैं, और वे ही मृत्यु भी हैं। वे सत् और असत् दोनों हैं।
श्रीकृष्ण सम्पूर्ण जगत के आश्रयदाता, माता, पिता और पितामह हैं। वे जानने योग्य तत्व हैं और वो ही शुद्ध करने वाला अक्षर ओंकार हैं। ऋग्वेद, सामवेद तथा यजुर्वेद भी वे ही हैं (श्लोक संख्या 9.17)। वे ही सभी प्राणियों का प्राप्त करने योग्य परम लक्ष्य, उनके पालनकर्ता, उनके स्वामी, सब को देखने वाले साक्षी, सबका धाम, सबकी शरणस्थली; और सबके हितकारी हैं। सृष्टि की उत्पत्ति और प्रलय का कारण, सबका आधार, सबका निधान (प्रलयकाल में सभी प्राणी जिसमें लय होते हैं); और अविनाशी बीज भी वे ही हैं (श्लोक संख्या 9.18)।
श्रीकृष्ण के ही निर्देश के अनुसार प्रकृति सभी चीजों- गतिमान और गतिहीन दोनों- की रचना करती है; जिससे ब्रह्मांडीय चक्र घूमता रहता है (श्लोक संख्या 9.10)। आगे श्लोक संख्या 15.12 में बताया गया है कि सूर्य, चन्द्रमा और अग्नि का तेज भी उन्हीं का तेज है। श्रीकृष्ण समस्त जीवों के हृदय में स्थित आत्मा हैं; तथा उन सभी का आदि, मध्य और अंत भी वे ही हैं (श्लोक संख्या 10.20)। समस्त प्राणियों के हृदय में स्थित हुआ ईश्वर अपनी माया के द्वारा उन सभी को इस जगत में ऐसे घुमाता रहता है, जैसे कि वे सब किसी यंत्र पर आरूढ़ हों। यह सम्पूर्ण जगत उनमें ऐसे ही गुंथा हुआ है जैसे माला के मोती धागे में पिरोये हुए होते हैं। कृष्ण सर्वज्ञ हैं। वे उन सभी प्राणियों को जानते हैं जो अतीत में थे, जो वर्तमान में स्थित हैं; तथा वह भी जो अभी आने वाले हैं (श्लोक संख्या 7.26)।
भगवान श्रीकृष्ण ने मानव जाति को आश्वासन दिया है कि चिन्ता का कोई कारण नहीं है। जो कोई भी उनकी शरण लेगा, वह सभी बुराइयों से मुक्त हो जाएगा।