एक बार बुद्धदेव अपने शिष्यों के साथ कौशल राज्य गए। उन दिनों राज्य में अंगुलिमाल नाम के एक दस्यु का बड़ा आतंक था। उसके रास्ते में जो भी आता, वह उसे मार देता और उसकी अंगुलियों की माला गले में पहन लेता था। बुद्धदेव ने उसका पता पूछा और वहां जाने का निश्चय किया। राजा और उसके शिष्यों ने उन्हें वहां जाने के लिए मना किया, किंतु वे नहीं माने। रात के अंधेरे में दुर्गम वन के बीच प्रकंपित करती हुई आवाज आई- ‘ठहर जाओ।’ बुद्धदेव ने कोई ध्यान न दिया और चलते गए। अंगुलिमाल को आश्चर्य हुआ कि यह साधु इतने निर्भीक भाव से कैसे चला जा रहा है। उसने फिर गरजकर कहा- ‘ठहर जा।’ चलते-चलते ही बुद्धदेव ने उत्तर दिया- ‘भैया, मैं तो ठहरा ही हूं, लेकिन तुम कब ठहरोगे?’ अंगुलिमाल कटार लेकर उनको मारने दौड़ा तो बुद्धदेव ने योगबल से अपने और उसके बीच दूरी स्थिर कर दी थी। भगवान बुद्ध ने उसके निकट जाकर कंधे पर हाथ रख कहा- ‘क्या तू नहीं ठहरेगा? सब दिन यों ही दौड़ता रहेगा?’ बुद्धदेव के दिव्य स्पर्श को पाते ही अंगुलिमाल का भाव बदल गया, वह उनके चरणों में गिरकर रोने लगा। उनके शांत तेजोदीप्त चेहरे को देखकर उसने आत्मसमर्पण कर दिया। – देवेन्द्रराज सुथार