उच्च हिमालयी क्षेत्र की दुर्गम घाटियों में स्थित चार धामों, खासकर बदरीनाथ, केदारनाथ की यात्रा आस्तिकों के मन में विराट आध्यात्मिक चेतना का भाव जगाती है। थोड़ी देर के लिए ही सही, प्रकृति सहचरी के सान्निध्य में व्यक्ति इस दैहिक जगत के प्रपंच से मुक्त होकर, प्रभु के चरणों में लीन होकर अपना जीवन सार्थक मान लेता है और कहीं न कहीं यात्रा का उद्देश्य सिद्ध हो जाता है…
सुषमा जुगरान ध्यानी
पौराणिक आख्यानों में देवभूमि कहे जाने वाले उत्तराखंड के असंख्य मंदिर और मठों में यूं तो सालभर श्रद्धालुओं का तांता लगा रहता है, लेकिन स्कंदपुराण में ‘केदारखंड’ नाम से पुकारे गये गढ़वाल क्षेत्र में स्थित बदरीनाथ, केदारनाथ धाम के साथ ही गंगोत्री, यमुनोत्री धामों का महात्म्य और महत्व सबसे ऊपर माना गया है। इन्हीं तीर्थों के तीर गंगा (भगीरथ के नाम से भागीरथी भी कही जाती है), यमुना और अलकनंदा, मंदाकिनी जैसी वे जीवनदायिनी नदियां प्रवाहित होती हैं, जो जीव-जगत के अस्तित्व का आधार हैं। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार उत्तराखंड की चारधाम यात्रा का शुभारंभ यमुनोत्री से होना चाहिए। उसके बाद गंगोत्री और फिर केदारनाथ धाम के दर्शन का पुण्य अर्जित करते हुए अंत में बदरीनाथ की यात्रा का सुफल प्राप्त करना चाहिए। धामों के धाम बदरीनाथ की यात्रा के बिना शेष तीन धामों की यात्रा अधूरी मानी जाती है।
उत्तराखंड की चार धाम यात्रा का महत्व इस रूप में सबसे अलग माना जाता है कि देश के बाकी तीर्थ स्थलों में श्रद्धालु जहां साल भर किसी भी समय दर्शन के लिए जा सकते हैं, वहीं चार धाम के कपाट गर्मी के मौसम में मई से नवंबर तक ही खुलते हैं। बाकी छह महीने यानी सर्दियों में विधिवत अखंड ज्योति प्रज्वलित करने के साथ ही चारों मंदिरों के कपाट आम जन के दर्शनार्थ बंद कर दिये जाते हैं। विग्रह डोलियों में समीप के गांवों में निश्चित स्थान पर विधि-विधान के साथ स्थापित कर दिये जाते हैं और नियत किये गये पुजारियों द्वारा प्रतिदिन उनकी पूजा-अर्चना की जाती है। ग्रीष्म के आगमन के साथ ही निश्चित तिथियों को विधि-विधान से मंदिर के कपाट आम जन के दर्शनार्थ खोल दिये जाते हैं।
भौतिक रूप से बेशक इसका कारण इन धामों की विकट भौगोलिक परिस्थितियां मानी जाती रही हैं, क्योंकि शीतकाल में यहां भीषण बर्फबारी के कारण यात्रा मार्ग अवरुद्ध हो जाता है। लेकिन पौराणिक मान्यताओं के अनुसार शीतऋतु में यहां देवगण पूजा-अर्चना करते हैं, इसलिए मनुष्यों का प्रवेश वर्जित होता है।
भगवान विष्णु ने की तपस्या, मां लक्ष्मी बनी रहीं वृक्ष
शिव और शक्ति के वर्चस्व वाली देवभूमि उत्तराखंड में सनातनधर्मी हिंदू मतावलंबियों की आस्था के सबसे बड़े धाम बदरीनाथ और केदारनाथ उसे स्वर्ग से भी ऊंची भावभूमि पर अवस्थित कर देते हैं। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार सतयुग में इस उच्च हिमालयी प्रदेश में भगवान विष्णु ने बदरी वन में घोर तपस्या कर अपने को नारायण स्वरूप में स्थापित कर कलियुग के सबसे बड़े तीर्थ का मान प्राप्त किया। माता लक्ष्मी ने स्वयं बदरी यानी बेर के वृक्ष के रूप में भगवान विष्णु की शीत, वर्षा और ताप से रक्षा की, अतः तपस्या के बाद लक्ष्मी जी के सेवाभाव और निष्ठा से प्रसन्न होकर विष्णु भगवान ने उन्हें बदरी नाम दिया और स्वयं उनके नाथ के रूप में बदरीनाथ कहलाये।
आदि शंकराचार्य ने किया जीर्णोद्धार
आठवीं शताब्दी में जगद्गुरु आदि शंकराचार्य ने हिंदू धर्म के पुनर्जागरण का जो बीड़ा उठाया, उसमें पूरब से लेकर पश्चिम और उत्तर से लेकर दक्षिण तक शैव, वैष्णव और शाक्त मतों के बीच सामंजस्य बिठाते हुए संपूर्ण भारत की यात्रा की। उत्तराखंड क्योंकि पौराणिक काल से ही देवभूमि और ऋषि मुनियों की तपस्थली रहा है, इसलिए आदि शंकराचार्य ने उत्तराखंड का भ्रमण करते हुए गढ़वाल के तत्कालीन राजा कनकपाल के सहयोग से मठ मंदिरों की स्थापना और जीर्णोद्धार का स्तुत्य कार्य किया। इस क्रम में उन्होंने बदरी वन स्थित विष्णु भगवान की तपस्थली बदरीनाथ के निकट स्थित नारद कुंड से उनकी ध्यानस्थ मूर्ति बाहर निकाल मंदिर में पुनः स्थापित की। यहां मुख्य पुजारी के रूप में दक्षिण भारत के ब्रह्मचारी नंबूदरीपाद ब्राह्मण, जिन्हें रावल पदनाम मिला, की परंपरा का निर्वाह आज तक होता आ रहा है।
तो ‘भविष्य बदरी’ में होगी पूजा!
वर्तमान में पूजित बदरीनाथ धाम के अलावा इसी क्षेत्र में थोड़ी-थोड़ी दूरी पर बदरीनाथ जी के चार और मंदिर स्थापित हैं, जो भगवान बदरीनाथ के अलग-अलग स्वरूपों के प्रतीक हैं। इनमें से एक हैं ध्यान बदरी, दूसरे योग बदरी, तीसरे वृद्ध बदरी और चौथे भविष्य बदरी। ऐसी मान्यता है कि कलियुग में भगवान विष्णु के ही अंशावतार नर और नारायण पर्वत, जिनकी उपत्यका में भगवान बदरीनाथ का मंदिर स्थापित है, जब आपस में मिल जाएंगे तो वर्तमान बदरीनाथ धाम मनुष्य की पहुंच से दूर हो जाएगा। तब भविष्य बदरी में ही बदरीनाथ स्वरूप भगवान विष्णु की पूजा-अर्चना होगी।
पांडवों से जुड़ी शिव कथा
भगवान के बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक केदारनाथ के दर्शन बिना बदरीनाथ के दर्शन का सुफल नहीं मिलता है। प्रकृति की विराट सत्ता के बीच केदारनाथ के रूप में स्थापित भगवान शंकर के यहां वास करने संबंधी अनेक कथाएं प्रचलित हैं, जिनमें सबसे प्रचलित पांडवों से जुड़ी है। शिव पांडवों को दर्शन न देने की मंशा से भैंसे का रूप धारण कर यहां चले आये, लेकिन पहचाने गये। वह धरती में समा जाना चाहते थे, लेकिन भैंसे का पृष्ठ भाग भीम द्वारा पकड़ लिया गया। अंततः शिव ने पांडवों को दर्शन देकर कृतार्थ किया और भैंसे के पृष्ठ भाग को पत्थर के रूप में पूजनीय बना दिया। माना जाता है कि बाद में पांडवों के वंशज जनमेजय ने इस मंदिर की स्थापना की। लेकिन यह इतिहास सम्मत तथ्य है कि आठवीं सदी में उत्तराखंड भ्रमण के दौरान शंकराचार्य ने बदरीनाथ के साथ केदार धाम का भी जीर्णोद्धार किया और अंततः यही समाधिस्थ हुए।
राजमहल से कलश, अंतिम गांव से वस्त्र
धामों के धाम बदरीनाथ की बात करें तो गढ़वाल के राजा द्वारा विधिवत कपाट खोलने और बंद करने की जो परंपरा मध्यकाल से शुरू की गई थी, वह ब्रिटिश शासन काल से आजाद भारत तक उसी तरह निभाई जा रही है। सरकार के संरक्षण के बावजूद प्रतीकात्मक रूप से टिहरी राज परिवार के मुखिया वसंत पंचमी के दिन पंचांग की गणना के आधार कपाट खोलने का शुभ मुहूर्त निकलवाते हैं। ये सारे विधि-विधान उनके नरेंद्रनगर स्थित राजमहल में संपन्न होते हैं। कपाट खुलने की तिथि घोषित होते ही महारानी महल की कुंवारी कन्याओं के साथ मिलकर तिल का तेल निकाल घड़े में रखती हैं। इस प्रक्रिया को ‘गाड़ू घड़ी’ कहा जाता है। तेल का घड़ा बदरीनाथ के स्थानीय डिमरी पुरोहितों को राजमहल बुलाकर सौंप दिया जाता है। नियत समय पर कलश यात्रा ढोल, दमाऊ के साथ विभिन्न पड़ावों से होते हुए मुख्य पुजारी रावल और विष्णु जी के विग्रह की प्रतीक उद्धव जी की डोली के साथ तय तिथि को पांडुकेशर से बदरीनाथ पहुंचती है। वहां विधि-विधान से मंत्रोच्चार के बीच कपाट खोले जाते हैं और तिल के तेल से बदरीनाथ जी का अभिषेक किया जाता है। कपाट खुलने के समय बदरीनाथ जी की मूर्ति के ऊपर घी में सना जो ऊनी वस्त्र सुशोभित होता है, उसे वहां उपस्थित श्रद्धालुओं में प्रसाद रूप में वितरित कर दिया जाता है। नवंबर में कपाट बंद होते समय बदरीनाथ जी को ओढ़ाया जाने वाला भेड़ की ऊन से निर्मित यह वस्त्र देश की सीमा के अंतिम गांव माणा की किसी कुंवारी कन्या द्वारा एक ही दिन में काता और बुना जाता है।