विजय सिंगल
अस्तित्व के सैद्धांतिक और व्यावहारिक पहलुओं को अलग-अलग नहीं किया जा सकता। ये दोनों एक ही वास्तविकता के अविभाज्य एवं अभिन्न अंग हैं। आध्यात्मिकता और नैतिकता का सबसे आधिकारिक स्रोत होने के नाते भगवद्गीता ने मानव जीवन के इन दोनों पक्षों की व्याख्या बड़े ही व्यापक ढंग से की है। एक तरफ यह सारी सृष्टि के पीछे की अपरिवर्तनीय सच्चाई की जांच करती है; और दूसरी तरफ यह भौतिक दुनिया के लगातार बदलते हुए घटनाक्रम से भी संबंधित है।
गीता ने केवल ब्रह्मांड के बारे में जानकारी प्राप्त करने के लिए नहीं, बल्कि मानव-प्रकृति को बेहतर ढंग से समझने के उद्देश्य से परम सत्य और भौतिक संसार के संबंधों पर गूढ़ विचार किया है। इस तरह की समझ का उपयोग व्यक्तिगत व्यवहार को बेहतर बनाने और इसके परिणामस्वरूप पूरे समाज में समग्र रूप से सुधार लाने के लिए एक साधन के रूप में किया गया है। गीता ने मानव जाति को न केवल वह दर्शन दिया है जो हमें सत्य को जानने की दूरदर्शिता देता है, बल्कि उन तरीकों और साधनों को भी सुझाया है, जिनके द्वारा उस सत्य को महसूस किया जा सकता है। इसने हमें न केवल जीवन के अर्थ और उद्देश्य की सैद्धांतिक व्याख्या प्रदान की है, बल्कि यह भी समझाया है कि उस उद्देश्य को कैसे प्राप्त किया जा सकता है। इसने असंख्य मानवीय समस्याओं के व्यावहारिक समाधान भी सुझाए हैं। ब्रह्मविद्या के रूप में गीता ने आत्मा, परमात्मा और जीवात्मा की मुक्ति जैसी अनेक आध्यात्मिक अवधारणाओं का गहन अध्ययन किया है। साथ ही योगशास्त्र के रूप में उस मुक्ति को प्राप्त करने के विभिन्न व्यावहारिक तरीकों का वर्णन किया गया है। इस प्रकार भगवद्गीता वास्तविकता को जानने का विज्ञान और उस वास्तविकता के साथ एकता प्राप्त करने की कला, दोनों है।
गीता ने न केवल यह प्रकट किया है कि मनुष्य परमात्मा का एक अभिन्न अंग है, बल्कि विभिन्न तकनीकों को भी निर्धारित किया है जिसके द्वारा वह परमात्मा के साथ अपनी एकता के बारे में सदा जागरूक रह सकता है।
गीता में भगवान दूर के दर्शक मात्र नहीं हैं, बल्कि एक निरंतर साथी हैं। वह सखा हैं, एक घनिष्ठ मित्र हैं, जो हर समय हमारे साथ रहता है (श्लोक 11.42)। वह दार्शनिक हैं और मार्गदर्शक भी। ईश्वर और मनुष्य के बीच विचारों का आदान-प्रदान चलता रहता है। संवाद तब तक जारी रहता है जब तक कि मनुष्य का भ्रम नष्ट नहीं हो जाता और सारे संदेह दूर नहीं हो जाते (श्लोक 18.73)। गीता की शिक्षा न केवल व्यक्ति को यह समझने में मदद करती है कि अपनी परिस्थितियों को देखते हुए उसे क्या करना चाहिए, बल्कि वह कार्य करने में उसका मार्गदर्शन भी करती है।
ज्ञान, कर्म और भक्ति मार्ग
गीता में विभिन्न पथों का वर्णन किया गया है जिन पर चल कर व्यक्ति अपने वास्तविक स्वरूप का प्रत्यक्ष ज्ञान प्राप्त कर सकता है। ये मार्ग हैं ज्ञान मार्ग अर्थात्आत्म ज्ञान का मार्ग, कर्म मार्ग अर्थात्किसी भी प्रकार के बंधन से मुक्त कार्य करने की विधि; और भक्ति मार्ग अर्थात्ईश्वर के प्रति प्रेम और विश्वास का मार्ग। आत्मा की मुक्ति के इन मार्गों को अलग-अलग और सामूहिक रूप से योग के नाम से जाना जाता है। आत्म-साक्षात्कार के ये तीनों मार्ग एक-दूसरे के विपरीत नहीं हैं। ये तो वास्तव में एक-दूसरे के पूरक ही हैं। कोई भी व्यक्ति अपनी प्रकृति और परिस्थितियों के अनुसार मुक्ति के इन साधनों में से किसी एक या अधिक साधन को चुन सकता है। गीता ने स्पष्ट तौर पर यह घोषणा की है कि सच्चा त्याग संसार से विमुख होने में नहीं, बल्कि लगन और निर्लिप्तता से अपने कर्तव्य का पालन करने में है। भगवान श्रीकृष्ण ने मन की समता पर भी बहुत जोर दिया है। भगवदगीता हमें सिखाती है कि मनुष्य अपने मन के द्वारा स्वयं को जीवन में ऊंचा उठा सकता है या नीचे गिरा सकता है; क्योंकि मन ही किसी का सबसे अच्छा दोस्त या सबसे बड़ा दुश्मन होता है (श्लोक 6.5)। यदि मन को वश में कर लिया जाए तो बाकि सब कुछ अपने आप ठीक हो जाता है। गीता ने न केवल मानव मन की कमजोरियों जैसे काम, क्रोध, लोभ, अहंकार, पाखंड और भय की पहचान की है, बल्कि यह भी विश्लेषण किया है कि यह बुराइयां क्यों उत्पन्न होती हैं। और इनको कैसे दूर किया जा सकता है। इस उद्देश्य से मन को नियंत्रित करने की विभिन्न तकनीकों को भी निर्धारित किया गया है।
मन की शांति
भगवद्गीता में आगाह किया गया है कि कोई भी चरम व्यवहार वाला व्यक्ति योग में सफलता प्राप्त नहीं कर सकता है। खाने, सोने या मनोरंजन जैसी गतिविधियों में अत्यधिक भोग या पूर्ण परहेज़ आत्म-साक्षात्कार के मार्ग में केवल एक बाधा ही साबित होता है (श्लोक 6.16 एवं 6.17)। आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त करने के लिए मन को स्थिर और हृदय को शुद्ध करना आवश्यक है। मन की शांति तभी प्राप्त होती है जब मनुष्य हर स्थिति को प्रसन्नतापूर्वक स्वीकार करने की प्रवृत्ति विकसित कर लेता है। वह अपने सभी कार्यों को भगवान के प्रति एक भेंट के रूप में समर्पित कर देता है और सब परिणामों को उनके आशीर्वाद के रूप में स्वीकार करता है। संक्षेप में, भगवान श्रीकृष्ण ने मानव जाति को एक संतुलित, समर्पित और निष्ठावान जीवन व्यतीत करने का मंत्र दिया है। इस प्रकार व्यक्ति भयंकर प्रतिस्पर्धा वाली इस दुनिया में संघर्ष करते हुए भी आनन्दपूर्वक रह सकता है।