चेतनादित्य आलोक
प्रभु श्रीराम की जन्मस्थली अयोध्या के निकट छपिया नामक गांव में चैत्र शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि यानी रामनवमी के दिन एक मेधावी बालक का जन्म हुआ। पिता हरिप्रसाद एवं माता भक्ति देवी ने बालक का नाम घनश्याम रखा। पांच वर्ष की अवस्था में उनकी पढ़ाई-लिखाई शुरू हुई और शीघ्र ही अपनी विलक्षण प्रतिभा का परिचय देते हुए उन्होंने अनेक शास्त्रों को कंठस्थ कर लिया। घनश्याम की जन्मपत्री देखकर ज्योतिषियों ने भविष्यवाणी की थी कि प्रतिभावान बालक लोगों के कष्ट दूर करेगा और उन्हें सही दिशा प्रदान करेगा। कालांतर में घनश्याम ने बाद में समाज सुधार तथा मानव सेवा के अनेक महत्वपूर्ण कार्य किये।
बाल योगी
माता-पिता की मृत्यु के बाद वे महज 11 वर्ष की आयु में घर-बार छोड़कर भारत यात्रा पर निकल गये और एक बाल योगी के रूप में अगले 7 वर्षों तक भगवान नीलकंठ का नाम लेते हुए भारत भ्रमण करते रहे। उल्लेखनीय है कि यात्रा पूरी होते-होते बालक घनश्याम की ख्याति पूरे देश में फैल गयी और लोगों के बीच वे नीलकंठवर्णी के रूप में स्थापित हो गये।
दीक्षा
यात्रा से लौटने के बाद वे गुजरात के महान वैष्णव संत रामानंद स्वामी की शरण में गये, जहां स्वामी जी ने 28 अक्तूबर, 1800 को उन्हें एक वैष्णव तपस्वी के रूप में दीक्षा दी। दीक्षा ग्रहण करने के पश्चात गुरु रामानंद स्वामी ने उन्हें ‘सहजानंद स्वामी’ नाम दिया और महासमाधि लेने से पूर्व सन् 1801 में स्वामीनारायण परंपरा के अनुसार सहजानंद स्वामी को अपना उत्तराधिकारी और संप्रदाय का मुखिया नियुक्त कर दिया। इसे महज संयोग कहें या संत रामानंद स्वामी की दूरदृष्टि कि अपने शिष्य सहजानंद स्वामी को कार्यभार सौंपने के बाद उसी वर्ष 17 दिसंबर को उन्होंने महासमाधि ले ली। इस प्रकार रामानंद स्वामी जी की ईह-लीला समाप्त हुई।
स्वामीनारायण नाम
सहजानंद स्वामी ने अपने गुरु रामानंद स्वामी द्वारा गठित ‘उद्धव सम्प्रदाय’ का नेतृत्व स्वीकार किया। ‘स्वामीनारायण मूल कथा’ के अनुसार सहजानंद स्वामी ने उत्तराधिकार ग्रहण करने के बाद शीघ्र ही भक्तों को जप करने का निर्देश दिया। कालांतर में संप्रदाय के मुखिया यानी सहजानंद स्वामी और उनका संप्रदाय यानी उद्धव सम्प्रदाय दोनों ही ‘स्वामीनारायण’ के नाम से विख्यात हुए। संत स्वामीनारायण ने समाज में व्याप्त विभिन्न कुरीतियों को समाप्त करने की दिशा में बड़ा योगदान किया। इसके लिए उन्होंने अपने अनुयायियों को तो प्रेरित किया ही साथ ही अपने कार्यों से भी लोगों को शिक्षाएं देने की कोशिश की।
सेवाभाव और अक्षरधाम मंदिर
उन्होंने देश में समय-समय पर आने वाली प्राकृतिक आपदाओं में लोगों की बड़ी लगन से सेवा की तथा अपने अनुयायियों को लोगों की मदद के लिए प्रेरित एवं प्रोत्साहित भी किया। संत स्वामीनारायण जी के इसी मानवमात्र के प्रति सेवाभाव को देखकर लोगों ने उन्हें भगवान का अवतारी स्वीकार किया। उन्होंने अपने गुरु एवं संप्रदाय के विचारों तथा भक्ति-भाव के प्रचार-प्रसार हेतु गुजरात के अहमदाबाद में स्वामीनारायण मंदिर, जिसे अक्षरधाम मंदिर के नाम से भी जाना जाता है, का निर्माण कराया। स्वामीनारायण संप्रदाय का यह पहला मंदिर था, जिसके निर्माण में स्वयं स्वामीनारायण ने भी श्रमदान किया था। उनके अनुयायी आनंदानंद स्वामी की देखरेख में निर्मित यह मंदिर भारतीय वास्तुकला का एक अद्भुत उदाहरण है। वैसे विश्वभर में फैले सारे स्वामीनारायण मंदिरों की एक विशेष पहचान उनकी भव्यता एवं स्थापत्य कला की विशिष्टता होती है।
वैसे यदि कहें कि स्वामीनारायण मंदिरों में लगे मेहराब और चमकीले रंगों से चित्रित ब्रैकेट्स उनकी शोभा में चार चांद लगा देते हैं तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। अहमदाबाद के उक्त मंदिर में बर्मी टीक जैसी अत्यंत महंगी एवं विशिष्ट कोटि की लकड़ी का उपयोग किया गया है। महत्वपूर्ण यह भी है कि मंदिर में विराजमान अनेक मूर्तियों को संत स्वामीनारायण ने स्वयं ही स्थापित कराया था। उक्त मंदिर में लोगों के लिए अलग-अलग प्रकार की अनेक सुविधाएं मौजूद हैं।
संत स्वामीनारायण ने अपने जीवन में पांच प्रमुख नियम बनाये और उनका पालन किया, यथा- अस्तेय, शाकाहारी जीवन, मदिरा का सेवन नहीं करना, काम-वासनाओं का त्याग करना तथा अपने धर्म का पालन करना। स्वामीनारायण संप्रदाय के अनुयायियों को जीवन में इन्हीं सरल दिखने वाले किन्तु पालन में अत्यंत कठिन प्रतीत होने वाले नियमों का पालन करना होता है।