मीडिया हेतु आत्मनिरीक्षण का वक्त
टीआरपी की भूख इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को किस हद तक पहुंचा देती है, उसकी बानगी एक चैनल द्वारा गढ़ी गई सनसनीखेज कहानी और उसके खिलाफ उपजी देशव्यापी प्रतिक्रिया से नजर आती है, जिसको लेकर देश की शीर्ष अदालत ने गंभीर टिप्पणियां की हैं और मीडिया की निरंकुश भूमिका को लेकर सवाल उठाये हैं। अदालत का मानना है कि ऐसे प्रयासों से सूचनाओं की विश्वसनीयता और सटीकता को आंच आती है। इस बाबत दायर याचिका के बाद शीर्ष अदालत ने एक चैनल के बिंदास बोल कार्यक्रम के प्रसारण पर रोक लगा दी है। अदालत का मानना था कि चैनल ने विभाजनकारी सोच के चलते ‘यूपीएससी जिहाद’ जैसे कार्यक्रम के प्रसारण का प्रयास किया। अदालत का मानना रहा है कि राष्ट्रीय सुरक्षा की आड़ में असत्य तथ्यों को पेश करके एक संस्था की विश्वसनीयता को ठेस पहुंचाने के साथ सांप्रदायिक सौहार्द को बिगाड़ने की कोशिश हुई है। दरअसल, कार्यक्रम के जरिये यह दिखाने का प्रयास किया गया कि संप्रदाय विशेष के लोगों को देश की उच्च प्रशासनिक सेवा में कुछ छूट के साथ सुनियोजित तरीके से प्राथमिकता दी जा रही है। इस स्थिति को गंभीर चुनौती बताते हुए शीर्ष अदालत ने सुझाव दिया कि इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को स्व-विनियमन करने में मदद के लिए विशेषज्ञों का एक पैनल स्थापित किया जाये। यह भी कि विधायी जांच और संतुलन के बावजूद स्थिति केवल खराब से और बदतर ही होती चली गई है। वहीं अदालत ने मीडिया पर बाहरी अंकुश की बात को सिरे से खारिज किया क्योंकि यह कालांतर में अभिव्यक्ति की आजादी का अतिक्रमण ही होगा। उल्लेखनीय है कि वर्ष 1995 में लागू केबल टेलीविजन नेटवर्क विनियमन अधिनियम अधिकारियों को उन कार्यक्रमों के प्रसारण पर प्रतिबंध लगाने का अधिकार देता है, जिनकी वजह से सांप्रदायिक तनाव उत्पन्न होने की आशंका हो। इससे पहले सूचना और प्रसारण मंत्रालय ने शिकायतों के बावजूद इस चैनल के कार्यक्रम को प्रसारण की अनुमति दे दी थी कि इससे प्रोग्राम कोड का उल्लंघन नहीं होता।
यह विडंबना ही है कि इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पिछले कुछ समय से अनेक प्रकरणों में अतिरंजित प्रसारणों से सभी सीमाएं लांघता नजर आता है। अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत की मृत्यु और उसके बाद सीबीआई की जांच प्रक्रिया के घटनाक्रम पर अतिरंजित कवरेज न्यायिक जांच के दायरे में आ सकती है। निस्संदेह टीआरपी की होड़ से ऐसे मामलों में जांच की दिशा प्रभावित होने की आशंका बनी रहती है क्योंकि चैनल अदालत खोलकर खुद फैसले देने का उपक्रम करने लगते हैं। अभिव्यक्ति की आजादी की आड़ लेकर स्वच्छंदता से सूचनाओं की सटीकता व तथ्यों की पवित्रता को आंच आती है। देश का संविधान व्यक्ति के सार्वजनिक अधिकार, शालीनता व नैतिकता के अतिक्रमण पर राज्य को हस्तक्षेप का अधिकार देता है। अभिव्यक्ति की आजादी वहीं तक हो सकती है, जहां तक वह दूसरे व्यक्ति की निजता और मौलिक अधिकारों का अतिक्रमण न करती हो, जिसकी रक्षा का दायित्व राज्य का है और उसकी निगरानी का अधिकार न्यायिक संस्थाओं को है। कई बार सरकारों की उदासीनता के चलते न्यायालयों ने ऐसे मामलों में हस्तक्षेप करके निरंकुशता पर अंकुश लगाने की पहल भी की है। निस्संदेह अभिव्यक्ति की आजादी और अन्य संवैधानिक मूल्यों की रक्षा के मध्य संतुलन बनाने की जरूरत है। यहां इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को आत्मनियंत्रण की राह चुननी होगी। उन्हें विचार करना होगा कि आखिर क्यों उनकी विश्वसनीयता में गिरावट आ रही है। वहीं इस मामले में केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट से कहा है कि पहले डिजिटल मीडिया का नियमन होना चाहिए, क्योंकि उसकी पहुंच टीवी और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से ज्यादा होती है जो सोशल मीडिया के जरिये वायरल होकर ज्यादा घातक परिणाम दे सकता है। इसलिए प्रभाव और क्षमता को देखकर नियमन होना चाहिए। तर्क दिया गया कि इलेक्ट्रॉनिक मीडिया और प्रिंट मीडिया के संबंध में पहले ही पर्याप्त रूपरेखा और न्यायिक घोषणाएं विद्यमान हैं। केंद्र सरकार की ओर से सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय द्वारा दायर हलफनामे में इस मामले में न्याय मित्रों की कमेटी बनाने का आग्रह भी किया गया है।