मुकुल व्यास
दुनिया में कोरोना वैक्सीन की रेस तेज हो गई है। वैक्सीन बनाने के लिए जहां अधिकांश रिसर्चर पारंपरिक वायरस-आधारित विधियां अपना रहे हैं, वहीं कुछ रिसर्चरों ने वैक्सीन निर्माण के लिए एक नयी टेक्नोलॉजी चुनी है। यह टेक्नोलॉजी मैसेंजर आरएनए (राइबोन्यूक्लिक एसिड) पर आधारित है। इस तरह की वैक्सीन को ‘एमआरएनए’ वैक्सीन भी कहा जाता है। आखिर क्या होती है यह एमआरएनए वैक्सीन? हमारे शरीर में मैसेंजर आरएनए डीएनए को आवश्यक प्रोटीन निर्मित करने के लिए सूचनाएं प्रेषित करता है। ये प्रोटीन हमारी कोशिकाओं और ऊतकों को रेगुलेट करते हैं लेकिन वायरस आरएनए का प्रयोग अपने कुत्सित इरादों के लिए करते हैं। वायरस में खुद को दोहराने या रेप्लिकेट करने के लिए कोशिका जैसी मशीनरी नहीं होती। अतः वे स्वस्थ कोशिकाओं पर हमला करके उनमें खुद को दोहराने लगते हैं। इसके परिणामस्वरूप बीमारी उत्पन्न होती है जो कभी-कभी मौत में बदल सकती है।
कोरोना वायरस के स्पाइक प्रोटीन को सक्षम बनाने का काम मैसेंजर आरएनए ही करता है। ध्यान रहे कि स्पाइक प्रोटीन वायरस का मुख्य हथियार है, जिसके सहारे वह स्वस्थ कोशिकाओं के अंदर दाखिल होता है। वायरस जब फेफड़ों की कोशिकाओं पर हमला करता है तो स्थिति बिगड़ जाती है क्योंकि पीड़ित व्यक्ति को सांस लेने में कठिनाई होने लगती है। एमआरएनए वैक्सीन में उस आरएनए का कृत्रिम रूप होता है, जिसका इस्तेमाल वायरस प्रोटीन बनाने के लिए करता है। इस वैक्सीन में वायरस के प्रोटीन बनाने के लिए समुचित जानकारी नहीं होती।
लेकिन शरीर की प्रतिरोधी प्रणाली इस वैक्सीन से चकमा खा जाती है। वह यह समझने लगती है कि कोई वायरस आ गया है। वह तुरंत हरकत में आ कर एंटीबॉडीज उत्पन्न करने लगती है। एंटीबॉडीज खास तरह के प्रोटीन होते हैं, जिन्हें प्रतिरोधी प्रणाली किसी वायरस से निपटने के लिए निर्मित करती है। फ्लू या मीजल्स जैसी पारंपरिक वैक्सीनों में शरीर में प्रतिरोधी प्रणाली को सक्रिय करने के लिए अल्प मात्रा में वायरस इंजेक्ट किया जाता है। ऐसी वैक्सीनों में या तो वायरस के शिथिल रूप को शामिल किया जाता है या फिर वैज्ञानिकों द्वारा नष्ट किए गए वायरस को शामिल किया जाता है। इस मृत वायरस के प्रोटीन भी शरीर में इम्यूनिटी उत्पन्न कर सकते हैं।
अमेरिका में यूनिवर्सिटी ऑफ पेनसिल्वेनिया के इम्यूनोलॉजीजिस्ट ड्रयू वाइजमान का कहना है कि ऐसी वैक्सीनों में प्रयुक्त वायरस कभी-कभी पूरी तरह से नहीं मरता, हालांकि ऐसे मामले बहुत दुर्लभ होते हैं। कभी-कभी शिथिल किए गए वायरस की डोज इतनी तेज हो जाती है कि व्यक्ति बीमार हो जाता है। ऑक्सफोर्ड और एस्ट्राजेनेका की बहुचर्चित वैक्सीन का ट्रायल एक व्यक्ति के बीमार पड़ने के बाद बीच में ही रोकना पड़ा था, हालांकि यह ट्रायल अब दोबारा शुरू हो गया है। एमएनआरए वैक्सीन में इस तरह के खतरे नहीं होते क्योंकि उसमें कोई वायरस नहीं होता।
वाइजमान ने कहा—आरएनए से कोई संक्रामक वायरस नहीं बनाया जा सकता। पारंपरिक वैक्सीन के साथ एक और बड़ी दिक्कत यह है कि इन्हें विकसित करने में बहुत वक्त लगता है। इनकी सेफ्टी को सुनिश्चित करने के लिए इनकी व्यापक स्तर पर टेस्टिंग करनी पड़ती है। महामारी के दौर में तेज रफ्तार बहुत जरूरी है। अतः वैक्सीन रिसर्चर अपने काम में तेजी ला रहे हैं। आरएनए का फायदा यह है कि वैक्सीन कुछ ही दिनों के अंदर तैयार की जा सकती है। नयी टेक्नोलॉजी को लेकर वैक्सीन बनाने वाली कंपनियों में मोडरेना और फाइजर-बायोएनटेक इस समय काफी चर्चित हैं। इन कंपनियों ने अब तक किए गए परीक्षणों में अपनी वैक्सीन से अच्छा इम्यून रेस्पांस मिलने का दावा किया है। मोडरेना के रिजल्ट नवंबर तक मिलने की उम्मीद है।
नयी वैक्सीन बनाने से पहले वैज्ञानिक यह पता लगाते हैं कि वायरस के अंदर कौन-सा एमआरएनए कौन-सा प्रोटीन बनाता है। इसके पश्चात वे कृत्रिम आरएनए बना सकते हैं। वैज्ञानिक कृत्रिम एमआरएनए बनाने के लिए खास तरह के एंजाइम का प्रयोग करते हैं। इस तरह तैयार एमआरएनए को एक विशेष आवरण में रखा जाता है ताकि उसमें क्षय न हो।
एमआरएनए का वैक्सीन के रूप में प्रयोग करने का विचार एकदम नया नहीं है। नब्बे के दशक में ही वैज्ञानिकों ने इस दिशा में काम शुरू कर दिया था। सबसे पहले उन्होंने चूहों में एंटीबॉडी रेस्पांस देखने के लिए उनमें एमआरएनए प्रविष्ट किया था। इन प्रारंभिक वर्षों में एमआरएनए प्रविष्ट करना खतरनाक था। कुछ मामलों में चूहों में एमआरएनए की डिलीवरी के बाद अत्यधिक सूजन उत्पन्न हो गई, जिससे उनकी मृत्यु हो गई। इन चूहों ने आरएनए के शरीर में पहुंचने के बाद अपने स्वाभाविक इम्यून रेस्पांस को सक्रिय कर दिया था। स्तनपायी जीव खतरनाक दिखने वाले किसी अजनबी का प्रतिरोध करने के लिए अंधाधुंध रूप से यह तरीका अपनाते हैं। यह सबसे बड़ी बाधा थी क्योंकि रिसर्चर यह नहीं समझ पा रहे थे कि इस इम्यून रेस्पांस को किस तरह दबाया जाए।
ऐसी स्थिति में एमआरएनए वैक्सीन बनाना मुश्किल था लेकिन 2000 के मध्य में स्थितियां बदलने लगीं। वाइजमान और उनके सहयोगी कैटलिन केरिको ने सूजन के जोखिम को दूर करने का तरीका खोज लिया। उन्होंने देखा कि एमआरएनए में कार्बन के अणु जैसे पदार्थ जोड़ कर उसकी सूजन पैदा करने की क्षमता को दूर किया जा सकता है। उन्होंने यह भी देखा कि इससे एमआरएनए के फंक्शन में कोई परिवर्तन नहीं होगा। हार्वर्ड की इम्यूनोलॉजिस्ट सारा सुलिमन का कहना है कि विश्व में कोविड महामारी की व्यापकता को देखते हुए किसी एक वैक्सीन से काम नहीं चलेगा। हमें कई तरह की वैक्सीनों की आवश्यकता पड़ेगी, जिनमें एमएनआरए वैक्सीन भी शामिल है। दूसरी बात यह है कि कोई भी अकेली कंपनी पूरे विश्व की मांग पूरा करने की स्थिति में नहीं है।
वाइजमान को एमआरएनए वैक्सीन का भविष्य उज्जवल दिखाई देता है। उनका कहना है कि करोना महामारी के खत्म होने के बाद भी इस तरह की वैक्सीन दूसरी बीमारियों में काम आ सकती है। मसलन इस तरह की वैक्सीन बच्चों को इस समय दी जाने वाली वैक्सीनों के स्थान पर दी जा सकती है।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।