शालिनी कौशिक
बचपन में हरियाली तीज के दिन विद्यालय में अवकाश रहता था। हम सभी सहपाठी छात्राएं नए-नए वस्त्र पहनकर और अपनी तरफ से पूरा शृंगार कर एक टोली बनाकर निकल एक-दूसरे के घर जाती थीं, झूला झूलती थीं, घेवर खाती थीं और तीज का त्योहार हंस खेलकर मनाती थी। सावन में जब सम्पूर्ण प्रकृति हरी ओढ़नी से आच्छादित होती है उस अवसर पर महिलाओं के मन मयूर नृत्य करने लगते हैं। पूर्वी उ.प्र. में इसे कजली तीज के रूप में मनाते हैं। हरियाली तीज के अवसर से पहले बहुत से मिष्ठान और पकवान बनाये जाते हैं जो विवाहित पुत्री के घर सिंधारे के रूप में दिए जाते हैं। पकवान भगवान उमा-शंकर को भोग में चढ़ाये जाते हैं। भगवान शिव को प्रिय खीर और मालपुए बनाये जाते हैं। पश्चिमी यूपी में घेवर व्यंजन विशेष रूप से बनाया जाता है। लंबे समय तक चलने वाले व्यंजन जैसे गुलगुले, शक्करपारे, सेवियां आदि भी पकाये जाते हैं।
ऐसा कहा जाता है कि इस दिन माता पार्वती सैकड़ों वर्षों की साधना के पश्चात भगवान शिव से मिली थीं। यह भी कहा जाता है कि माता पार्वती ने भगवान शिव को पति रूप में पाने के लिए 107 बार जन्म लिया फिर भी माता को पति के रूप में शिव प्राप्त न हो सके। 108वीं बार माता पार्वती ने जब जन्म लिया तब श्रावण मास की शुक्ल पक्ष तृतीया को भगवान शिव पति रूप में प्राप्त हो सके। तभी से इस व्रत का प्रारम्भ हुआ।
दरअसल, हरियाली तीज सुहाग का त्योहार है। भगवान शिव को हरा रंग अति प्रिय है, इसीलिए इस दिन महिलाएं हरी साड़ी, हरी मेहंदी, हरी चूड़ियों के साथ सोलह शृंगार कर के पूजा-अर्चना करती हैं। इस दिन महिलाएं झूला पेड़ पर डाल कर झूला झूलती हैं। भगवान शिव और माता पार्वती को प्रसन्न करने के लिए लोक गीत गाती हैं। बहरहाल, आज हरियाली तीज की प्राचीन परंपराओं में भी परिवर्तन आया है। पेड़ों पर झूले डालकर झूला झूलने की परंपरा लगभग लुप्त ही होती जा रही है। आज आधुनिक नारियों द्वारा ‘तीज क्वीन’ जैसी परम्परा की नींव डालकर भारतीय संस्कृति को आधुनिकता का चोला ओढ़ाने की कोशिश की जा रही है। असल में हर पर्व या त्योहार कोई न कोई संदेश देते हैं। ऐसा ही है हरियाली तीज पर्व। इसके मर्म को समझें और संदेश के मुताबिक प्रकृति को सहेजें, प्रकृति और खुद से प्यार करें।
साभार : शालिनी कौशिक2 डॉट ब्लॉगस्पॉट डॉट कॉम