अक्सर यही सुनने में आता है कि बेटे बुढ़ापे की लाठी होते हैं पर यह सच्चाई नहीं है। बेटों को तो अक्सर लट्ठ बजाते देखा है। यह लट्ठ मां-बाप के जीते जी भी बजता है और उनके मरने के बाद भी। लट्ठ की जड़ में संपत्ति होती है। पिता के संसार को अलविदा कहते ही बेटों का पहला मिशन होता है कि जल्दी से उनके नाम की सारी संपत्ति अपने नाम करा ली जाये, कहीं बाद में बहनें मैदान में न कूद पड़ें। इसलिये तेरहवीं तक के तेरह दिनों में बहन-बेटियों को भावुक कर सम्पदा से जुड़े कागजों पर साइन करवा लेने की कूटनीति लट्ठ चलाने से भी ज्यादा मारक है। कुंवारे बेटों की निगाह भी पिता की दौलत पर होती है और वे उसी के बल पर अय्याशी करते हैं। वरना नशे-पत्ते और होटलबाजी के लिये कौन-सी मां है जो अपने लाडलों की जेब भरती होगी।
असल में तो बहुएं ही बुढ़ापे की लाठी यानी सहारा होती हैं। जीते जी भी सास-ससुर की पूरी देखभाल का जिम्मा उठाती हैं और मरणोपरांत भी श्राद्ध कर्म आदि को श्रद्धापूर्वक निभाती हैं। कहा जाता है कि ब्लेड की धार बहुत तेज होती है पर पेड़ नहीं काट सकती। कुल्हाड़ी मजबूत होती है पर बाल नहीं काट सकती। इसलिये तुलना करना ही गलत है। पर बहू-बेटों की तुलना करने में क्या हर्ज है? जो फर्क सामने पड़ा दिखाई दे, उसे कह देना चाहिये। कटु सच्चाई यह है कि सास-ससुर बहुओं की उतनी कद्र नहीं करते जिसकी वे हकदार होती हैं। गाली से लेकर आग के हवाले करने के हजारों-हजार उदाहरण हैं। इसके विपरीत कुपुत्रों को एक भी शब्द कहते हुए मां-बाप डरते हैं। अधिकतर माएं तो अपने बेटों के ऐब-कुवैब छिपाने में ही अपनी जिंदगी पूरी कर देती हैं। पांच-सात प्रतिशत लड़कियां ही ऐसी हैं जो सास-ससुर के प्रति सम्मान नहीं रखतीं वरना ससुराल की पूरी धुरी को बहुओं ने ही सम्भाल रखा है। क्या समाज को उनका कर्जदार नहीं होना चाहिये?
अगर बहू रोटी गोल न बेल पाये तो भी हम उसकी फीत उतार देते हैं। जबकि हमें पता है कि रोटी तो टुकड़े-टुकड़े करके ही खानी है। फिर उसे गोल न बेलने पर बहुओं की ऐसी तैसी क्यों की जाती है? और बहुएं इतनी-सी बात पर खुश हो जाती हैं कि आज खिचड़ी बनानी है, चलो आज रोटी नहीं बनानी पड़ेगी।
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एक बर की बात है अक एक छोरी अपणी ढब्बण रामप्यारी ताहिं समझाते होये बोल्ली- जिस घर मैं इज्जत ना मिलै अर गाली-गलौच सुनणा पड़े, उठै कदे नीं जाणा चाहिय। रामप्यारी बोल्ली- ए बावली! सासरे तो जाणा ए पड़ै है।