12 मार्च के दैनिक ट्रिब्यून में राजकुमार सिंह के लेख ‘विश्वास-अविश्वास का राजनीतिक सच’ में स्पष्ट हुआ है कि राजनीति में आपसी विश्वास ख़त्म हो चुका है और इसकी जगह दांवपेचों ने ले ली है। सच्चाई यही है कि अब राजनीति व्यक्ति विशेष को केन्द्र में रखकर ही की जा रही है। लेखक का मानना है कि चेहरा बदलकर चुनाव जीतने की गारंटी पक्की हो, ज़रूरी नहीं। बीच सैशन में इस तरह की क़वायद से खलबली तो मचती ही है। अब निष्ठा केवल सत्ता के प्रति रह गयी है। चाको जैसे नेता एक ही दल के भरोसे क्यों बैठ जाते हैं, यह जानते हुए भी कि वहां तो पहले से ही आगे बढ़ने का रास्ता बन्द कर दिया जाता है। तीरथ महज एक साल में, किस चमत्कार से लोगों का दिल जीतेंगे, यह उन्हें अपने संकल्पों और कार्यों से सिद्ध करना है। सार्थक लेख के लिए बधाई।
मीरा गौतम, जीरकपुर
नियंत्रण जरूरी
16 मार्च के दैनिक ट्रिब्यून में भरत झुनझुनवाला का ‘निजी क्षेत्र पर सख्त नियंत्रण जरूरी’ लेख सार्वजनिक क्षेत्र की इकाइयों को निजी क्षेत्र को बेचने के बाद मनमाने ढंग से जनता को लूटने से बचाने पर नियंत्रण करने का सुझाव देने वाला था। देश में अगर सार्वजनिक क्षेत्र की इकाइयों में सुधार किया जाए तो जहां कुछ सामाजिक उद्देश्य प्राप्त होंगे, कीमतों पर नियंत्रण होगा वहीं निजी क्षेत्र को भी संदेश मिलेगा। मिश्रित अर्थव्यवस्था को अगर ठीक प्रकार से चलाया जाए तो वह आज भी कारगर हो सकती है। असल में राजनेता, अधिकारी और उद्यमी, ये तीनों मिले हुए हैं!
शामलाल कौशल, रोहतक
हकीकत पता चले
पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने अपने ऊपर हुए कथित हमले के लिए भाजपा को दोषी माना है। भाजपा का कहना है कि सियासी लाभ उठाने के लिए ममता बनर्जी ड्रामा कर रही है। निष्पक्ष जांच के बाद ही पता चल सकता है कि दोषी कौन है। वैसे असलियत सामने आनी चाहिए कि ममता नाटक कर रही है या उन पर हमला हुआ है ताकि लोकतंत्र में राजनीति करने वाले इन दलों व नेताओं की असलियत व कुरूप चेहरा तो जनता के सामने आए।
हेमा हरि उपाध्याय, खाचरोद, उज्जैन