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विराटता

लघुकथा
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वह समुद्र था। हर तरफ से खुला। उसका कोई दरवाज़ा नहीं था, क्योंकि वह बंद नहीं हो सकता था। लोग उसके पास हर तरफ़ से आते थे- आसक्ति, जिज्ञासा तो कभी उमंग लेकर। समुद्र सबकी एक की तरह से आवभगत करता। जो दूर होते, उन्हें विशालता की एक झलक दिखाता। जो थोड़ा निकट आते, उनके पांव चूमता और पखारता। फिर अपने को देखने का अवसर देता। जो जितना देख पाए, क्योंकि समुद्र तो बहुत विशाल और गहरा था। समुद्र आमतौर पर पहले ही अपनी उच्छल तरंगों के आने का पूर्वाभास करा देता था। समुद्र के किनारे आवाजाही कर रहे सब लोगों को उसका चेहरा उनके अपने हिसाब से दिखाई देता। समुद्र उन्हें आईना दिखा सकता था, यदि वे पृथ्वी से ऊंचे उठ सकते। सूरज-चांद-तारे ही नहीं, चिड़िया, सारस जैसे भी ऊपर से इसमें अपनी छवि देख लेते हैं। पर मनुष्य वह सब नहीं हो सकता। वह मनुष्य है, इसलिए कुछ दूरी तक समुद्र का विस्तार और उसकी लहरें ही देख पाता है।

मैं भी समुद्र के किनारे पहुंचा। तब रात थी। मुझे वह बेचैन और डरावना लगा। फिर दिन में देखा तो सुहावना लगा। वैसे यह अपनी-अपनी सोच है कि समुद्र कैसा है? है तो वो एक जैसा ही। खैर! मैंने समुद्र की रेत में थोड़े-से पैर जमाए। लहरों ने मुझे स्पर्श किया। निरन्तर, विशाल, गर्जन करती लहरें -घड़ी में सैकिंड की सुई की तरह तेज़ दौड़ती हुईं।

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मैं पानी में घुटनों तक उतरा। लहरों की निरंतर आवाजाही में इससे आगे नहीं जा सकता था। फिर खूब किल्लोल किए। लगा कि मेरे किल्लोल भी समुद्र जितने विशाल हैं। पानी में मस्ती करके लगा कि आज बहुत कुछ हासिल कर लिया है। समुद्रीय उपलब्धि। बड़े आत्मविश्वास के साथ सूखी रेत तक वापस आया। कितने स्मरणीय थे वे क्षण। मन हुआ कि एक बार फिर समुद्र को नज़रों में भर लूं।

चलते-चलते मुड़कर देखा- निरन्तर, विशाल समुद्र। साथ ही देखा, समुद्र की लहरों ने रेत पर पड़े मेरे पैरों के निशान मिटा दिए थे।

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