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गंवई खेलों की लुप्त विरासत

पुस्तक समीक्षा
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राजकिशन नैन

शायद कोई विरला ही व्यक्ति ऐसा होगा, जिसने अपने बचपन और किशोरावस्था में गांव-देहात के पारंपरिक खेलों का लुत्फ न उठाया हो। दो पीढ़ी पहले तक गंवई खेल ग्राम्य संस्कृति का अटूट अंग थे। लड़कपन को समुन्नत करने वाले इन खेलों के जरिये उठती उम्र के बच्चों का शारीरिक, मानसिक और बौद्धिक विकास होता था।

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हरियाणवी अंचल के गांवों, कस्बों एवं ढाणियों में इन पारंपरिक खेलों का सिलसिला सदियों से चला आ रहा था। अतीत में हरेक पीढ़ी इन मनोरंजक और मनोहारी खेलों को अगली पीढ़ियों तक पहुंचाया करती थी। किंतु हमारी अनदेखी के कारण आज ये खेल अतीत की अमानत बनकर रह गए हैं।

रोहित यादव ने ‘हरियाणा के परंपरागत ग्रामीण खेल’ नामक प्रकाशित पुस्तक में 26 प्रकार के पुश्तैनी खेलों का महत्व बताते हुए, उनकी शुरुआत एवं उन्हें खेलने के देसज तौर-तरीकों के बारे में विस्तार से सचित्र ब्योरा दिया है। नहर-नदी की पटड़ियों, लेट-जोहड़ के कंठारों, खेत-खलिहानों, ऊंची-नीची गलियों, कच्चे घरों, खाली जगहों और बड़-पीपल जैसे दरख्तों के आस-पास, धरा की धूल में लथपथ अल्हड़ लड़के-लड़कियां जब दीन-दुनिया को भूलकर इन खेलों के लिए इधर-उधर दौड़ते-भागते थे, तो उनकी बेफिक्री और खिलखिलाहट देखते ही बनती थी।

पांच-दस वर्षों तक गंवई खेलों में कड़ी मेहनत करके किशोरों का रंग निखर जाया करता और वे घर तथा खेत के हर काम में पारंगत हो जाया करते। आलस्य कदापि उनके पास नहीं फटकता था। वे हारी-बीमारी से भी दूर रहते थे। इन खेलों में रमने वाले बच्चे पढ़ाई में भी अव्वल आते थे। लेकिन जब से गांववासियों ने पारंपरिक खेलों को बिसराया है, तब से देहात में ललमुंहे युवक-युवतियों का काफी अभाव हो गया है।

हरियाणा की नई पीढ़ी अंट्टयां-अंट्टयां, गिंड्डी-टोरा, चरक-चूंड्डा, टुग्यां-टुग्यां, डंडा-बित्ती, तीत्तर-पंखा, दाइक-नीच्चा, फीटो-फीटो, बीज्झो-बांदरी और ल्हुका-छिपी जैसे गंवई खेलों के नाम तक नहीं जानती।

आधुनिक दलीय खेलों की तरह ग्रामीण खेलों में ‘टॉस’ पुरातन काल से प्रचलन में रहा है। गांवों में इसे ‘राम उछाला’ कहा जाता है। इसमें सिक्के की जगह पत्थर का टुकड़ा अथवा ‘ठेकरी’ बरतने की परंपरा रही है। इसी टॉस की देखादेखी दुनिया में सिक्का उछालने की परंपरा शुरू हुई। लेखक ने हीरवाट्टी अंचल में पचास वर्ष पहले तक प्रचलन में रहे प्रायः सभी गंवई खेलों का जो सरल, सटीक और तथ्यपरक खुलासा किया है, वह पुरानी और नई दोनों पीढ़ियों के लिए उपयोगी है।

इनमें से प्रत्येक खेल का अपना अलग रंग, मजा और मिज़ाज है। इन लुप्तप्राय खेलों में से कुछेक खेल गांवों और ढाणियों के बच्चे अब भी यदा-कदा खेलते दिखाई पड़ जाते हैं। इन्हें संरक्षित करने की महती आवश्यकता है।

पुस्तक : हरियाणा के परंपरागत ग्रामीण खेल लेखक : रोहित यादव प्रकाशक : निर्मल प्रकाशन, चरखी दादरी पृष्ठ : 94 मूल्य : रु. 200.

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