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शहीद महानायक की जीवंत गाथा

पुस्तक समीक्षा
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राजवंती मान

पुस्तक ‘थाईलैंड में शहीद भगत सिंह की याद’ दरअसल कृष्णा चैतन्य द्वारा 28 फरवरी, 2021 को थाईलैंड के सबसे पुराने गुरुद्वारा गुरु सिंह सभा, चिआंगमाई में दिया गया एक वक़्तव्य है। लेखक के अनुसार, इस वक्तव्य को गुरुद्वारा प्रधान सुभाष मनताला ने थाई भाषा में अनूदित करने का अनुरोध किया, तब कृष्णा चैतन्य ने इसे रिकॉर्ड करके कुछ साथियों की मदद से काग़ज़ पर ट्रांसक्राइब किया और न केवल थाई, बल्कि हिंदी और अंग्रेज़ी में भी लिखा। इन तीनों भाषाओं को संदर्भ सहित पुस्तक में समाहित करके प्रकाशित किया गया है। पुस्तक का हिंदी और अंग्रेज़ी लेखन कृष्णा चैतन्य द्वारा किया गया, जबकि थाई अनुवाद भारतविद्या अनुभाग थाईलैंड की सहायक प्रोफेसर पद्मा सर्वांगश्री ने किया है।

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लेखक ने भगत सिंह के जीवन और उनके कार्यकलापों को क्रमबद्ध तरीके से पेश करने की कोशिश की है और इसके लिए उन्होंने भगत सिंह की भानजी वीरेंद्र संधु की पुस्तकों, भगत सिंह के स्वयं लिखे लेखों और उन पर प्रकाशित अन्य पुस्तकों से आधारभूत सामग्री और तथ्यों का उपयोग किया है। भगत सिंह का जन्म 1907 में बंगा गांव (अब पाकिस्तान) में हुआ था, और उसी वर्ष सुदूर पूरब में थाईलैंड के गुरुद्वारा सिंह सभा चिआंगमाई की स्थापना हुई थी। पुस्तक में भगत सिंह के शुरुआती जीवन और उनके कुलनाम से संबंधित विस्तृत जानकारी दी गई है।

कॉलेज के दौरान, भगत सिंह ने 1923 में क्रांतिकारियों के संगठन ‘हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन/आर्मी’ में शामिल हो गए थे। इसके अलावा, वह गुरुद्वारा मुक्ति आंदोलन में भी परोक्ष रूप से शामिल हुए थे। ब्रिटिश राज के भ्रष्ट महंतों से गुरुद्वारों को मुक्त करने के आंदोलन में फरवरी 1921 में महंत ने अमानवीय अत्याचार किये थे। भगत सिंह ने इस क्रूरता के दृश्य देखे और अपने जीवन का उद्देश्य तय किया।

वर्ष 1928 में साइमन कमीशन का विरोध करने के लिए लाला लाजपत राय ने आंदोलन की अगुवाई की, और अंग्रेज़ पुलिस अफ़सर की लाठियों से पीटे जाने के कारण उनका देहांत हो गया। भगत सिंह और उनके साथियों के लिए यह देश का अपमान था, और सांडर्स का क़त्ल उस अपमान का बदला था। उस समय अंग्रेज़ी हुकूमत दो सख़्त क़ानून—‘पब्लिक सेफ़्टी बिल’ और ‘ट्रेड डिस्प्यूट्स बिल’—बनाने जा रही थी। भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने इस बीच दिल्ली असेंबली में बम फेंककर विरोध जताया और गिरफ़्तार हो गए। अंततः 23 मार्च, 1931 को भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव फांसी के तख़्ते पर झूल गए। यह पुस्तक उन सभी घटनाओं को समाहित और विश्लेषित करती है।

भगत सिंह केवल भारत के नहीं, बल्कि दुनिया के ऐसे अनूठे क्रांतिकारी थे जिन्होंने देशप्रेम और शहादत को इस हद तक रोमानी बना दिया था कि वे हर दिल अजीज़ और युवाओं के आदर्श बन गए।

चढ़ने को तो चढ़ ही गया दार पै लेकिन,

ता हश्र नहीं मरने का जिन्हार भगत सिंह।

(लेखिका की पुस्तक ‘कलम की आंच’ के प्रतिबंधित साहित्य, पृष्ठ 294 से)

वर्ष 1931 में लिखी गई ये पंक्तियां बेशक उसी समय अंग्रेज़ों द्वारा प्रतिबंधित कर दी गई हों, लेकिन आज भगत सिंह उसी धज के साथ दिलों में बसे हुए हैं, जैसे एक सदी पहले थे। यह पुस्तक उसी दृष्टांत का प्रतिनिधित्व करती है।

पुस्तक : थाईलैंड में शहीद भगत सिंह की याद लेखक : कृष्णा चैतन्य प्रकाशक : अकार बुक्स, नयी दिल्ली पृष्ठ : 173 मूल्य : रु. 225.

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