अशोक जैन
हर रोज की तरह बस डिपो के प्रवेश द्वार पर रजिस्टर में एंट्री करते हुए ड्राइवर राम स्वरूप को टाइम कीपर रूलदु ने कहा, ‘रामे, आज तुम्हारे रूट के दो ड्राइवर छुट्टी पर हैं। लाॅकडाउन में घर गये थे, लौटे नहीं। हो सकता है आज तुम्हारा रूट लंबा करना पड़े।’
‘मेरा कुछ फायदा होगा क्या?’
‘डबल ड्यूटी और सौ रुपये अलग से, अगर बस सही सलामत डिपो में ले आया तो!’
‘ठीक है। जैसा आप ठीक समझो।’
वह समय पर बस लेकर निकल गया। ड्राइविंग सीट पर बैठे हुए सामने शीशे में अपनी छाती पर लगे बैज़ के धुंधले अक्स को देख रहा था ड्राइवर रामस्वरूप। तभी घंटी की आवाज़ सुनी। बस अपने स्टाप पर रोक दी थी उसने। कुछ सवारियां चढ़-उतर रही थीं। तभी कंडक्टर की सीटी सुनाई दी और उसने बस चला दी। आखिरी स्टाप पर पहुंच कर बस खाली हो गई। ‘रामे, एक फेरा और ले लें? अभी समय पड़ा है थोड़ा।’ ‘देख लो।’
‘लिखवाकर आता हूं, तभी तो पेमेंट मिलेगी!’ उसने अपनी कलाई घड़ी देखी। शाम के 6 बज रहे थे। एक फेरा, यानी एक घंटा और, यानी 80/- अतिरिक्त मिलेंगे!
शाम देर गये घर पहुंचा। छाती से बैज़ उतारकर थैले में रखा, और थैला मेज पर रखकर मां को आवाज़ लगाई।
‘आ गया रामे? देर कर दी आज?’
‘हां, एक फेरा और लगाना पड़ा।’ रामस्वरूप ने जवाब दिया।
‘हाथ-मुंह धो ले, खाना लगा देती हूं।’
‘तूने खा लिया होगा मां!’
‘साथ ही खायेंगे। लाती हूं।’ दोनों खाना खाने बैठ गये।
‘मां छोटे का कोई खत नहीं आया। कई दिन हो गये!’
‘आज ही आया है, रामे। उसे कुछ पैसे चाहिए। कॉलेज की फीस भरनी है और हाथ घड़ी लेनी है उसे।’ ‘भिजवा देते हैं। कितने भिजवाने हैं?’ रामस्वरूप ने पूछा।
‘ले, चिट्ठी ही पढ़ ले।’ मां ने उसे चिट्ठी ही पकड़ा दी। चिट्ठी पढ़ते समय रामस्वरूप सहज ही बना रहा।
‘कल भिजवा देता हूं, मां। आप खत लिख देना।’ ‘अपने बारे में कब सोचेगा, रामे?’ मां ने आखिर पूछ ही लिया।
‘अभी जल्दी क्या है, मां? एक बार छोटा सैट हो जाये फिर सोचेंगे।’ …मां उसकी ओर देखती भर रही। सुबह डिपो जाते समय उसने तय कर लिया था कि वह दो फेरे अतिरिक्त लगायेगा रोज।