मनमोहन सहगल
रत्नकुमार सांभरिया का सद्य: प्रकाशित उपन्यास ‘सांप’ समाज के हाशिये पर आए रोज़गार चलाने वाले निर्धन संघर्षरत घुमंतू लोगों को केन्द्र में रखकर किया शायद सर्वप्रथम प्रयास है। बाज़ीगर, मदारी, कलन्दर, सपेरे आदि का व्यवसाय करने वाले उपेक्षित-से धंधे के चरित्रों की अच्छाइयाें- बुराइयों को प्रस्तुत करने के लिए ही लेखक ने इस उपन्यास का प्रणयन किया है। इन व्यवसायों में लिप्त निर्धन लोगों के पास न तो स्थायी रोज़गार हैं, न स्थायी आवास हैं, ऊपर से वन्यजीव कानून आदि के कारण उनकी कठिनाइयां और बढ़ गई हैं। उपन्यास के मुख्य पात्र लखीनाथ को लेखक ने निर्धन, चरित्रवान एवं सहज स्वभाव के सपेरे के तौर पर चित्रित किया है, जो सब प्रकार की उपेक्षाएं सहकर भी बस्ती के लिए मिलन के त्याग को देखकर ममता को मार कर अपना बच्चा उसे सौंप देता है। यह उपन्यास का उदार, सौजन्य-भरा सुभग जीवन का पक्ष है।
निर्धनता में सौजन्य और सौम्यता का विकसित रूप उन उपेक्षितों के लिए संवेदनशील मनस में अपनत्व का श्वास लेता यह उपन्यास सत्तापक्ष, धन-तंत्र तथा पुलिस-तंत्र के साथ जूझता हुआ जिजीविषा और जीवनेषणा को सार्थक होने तक सत्प्रेरणा का लक्ष्य प्रस्तुत करता है।
लखीनाथ सपेरे का कथन, ‘साब हम धरती बिछावा, आकाश ओढां। अपना पसीना से नहावां अर भूख खाकर सो जावां’ निर्धनता का प्रदर्शन करता है, वहीं मिलनदेवी के धन के प्रस्ताव पर चारित्रिकता-प्रदर्शन उसके भीतर मानवीयता का खज़ाना उभरता दिख पड़ता है। मिलन मातृत्व से वंचित हो जब प्रस्ताव में दरकते चरित्र का आभास प्रकट करती है, तो भी लखीनाथ अडिग रहता है।
उपन्यास में आजकल ऐसे हाशिये पर आने वाले कामगारों के लिए विकास एवं उत्थान की बयार के शीतलतादायी सरकारी प्रयासों की स्थिरता को भी दिखाने का प्रयास किया है। घुमंतू बेघर लोगों के लिए पक्की कॉलोनी का प्रस्तुतीकरण उपन्यास में सरकारी आशावादी परिणति एक सुखद फल दिखाती है।
उपन्यास में लेखक ने न केवल उपेक्षित लोक-जीवन, सामान्य मानवता की अस्मिता और अप्रत्याशित महनीयता उभरती दिखाई है बल्कि धनवादी लोग जिनको त्यक्त, बेकार, झूठे-मक्कार, गिरे हुए और नफरत की निगाह से देखते हैं, यथार्थ में उनके भीतर की मानवता, सद्भावना, संवेदना, सुयोग्यता को उपन्यास में उजागर किया गया है।
उपन्यासकार ने लोक-भाषा तथा परिवेश के माध्यम की पुट देते हुए हाशिए पर आने वाले इन लोगों का जीवन तथा माहौल सार्थक किया है। इस माहौल के बीच उभरते हुए विकास की लकीर दिग्दर्शित की है। भाषा वातावरणानुकूल है, और जीवनदायिनी है। कहीं-कहीं ऐसा प्रतीत होता है कि सांभरिया की लेखनी भाषा की स्वरचित कलात्मकता बन गई है।
उपन्यास ‘सांप’ एक प्रभावशाली, अनेक समस्याओं से जूझता हुआ वर्तमान की कठिनाइयों को हल करने में सार्थक लेखन है।
पुस्तक : सांप (उपन्यास) लेखक : रत्नकुमार सांभरिया प्रकाशक : सेतु प्रकाशन, नोएडा पृष्ठ : 417 मूल्य : रु. 375.