रघुविंद्र यादव
‘कांच के रिश्ते’ श्रीमती शकुन्तला अग्रवाल ‘शकुन’ का नया दोहा संग्रह है, जिसमें उनके लगभग 650 दोहे प्रकाशित हुए हैं। इस संग्रह में परम्परागत और समाकालीन दोनों प्रकार के कथ्य वाले दोहे शामिल हैं। एक तरफ जहां भक्ति, उपदेश और शृंगार के दोहे हैं तो दूसरी तरफ सम-सामयिक समस्याओं, सामाजिक विद्रूपताओं, विसंगतियों, राजनीतिक पतन, रिश्तों के टूटने-बिखरने, नारी की दुर्दशा, भ्रष्टाचार, धन-लिप्सा, गरीबी, भुखमरी, किसान की व्यथा आदि विविध विषयों पर लिखे गये दोहे शामिल किए गए हैं।
स्वार्थ और आपाधापी के इस दौर में रिश्तों पर भी स्वार्थ हावी हो गया है और पारिवारिक एकता तथा आपसी विश्वास छिन्न-भिन्न हो गया है। इसका लाभ दुर्जन उठा रहे हैं। तुलसी और नागफनी के माध्यम से रचनाकार ने इस स्थिति का सटीक चित्रण किया है :-
नागफनी हरने लगी, अब तुलसी का ताज।/ आंगन पर जब से हुआ, खुदगर्जी का राज।
इनसान स्वार्थी ही नहीं कृत्घन भी हो गया है। थोड़ा-सा सफल होते ही अपनी हैसियत भूलकर आत्मश्लाघा में जुट जाता है। जिनका हाथ उसकी सफलता में होता है उन्हें भी बिसरा देता है। शशि और सूरज को प्रतीक बनाकर रचनाकार ने सुन्दर उदाहरण प्रस्तुत किया है :-
सूरज बिन होती नहीं, कभी चांदनी रात।/ शशि इतराता क्यों फिरे, बिसरा निज औकात।
श्रीमती अग्रवाल ने सहज-सरल खड़ी बोली में सुन्दर छंद रचे हैं, जिनमें देशज शब्दों का भी जहां-तहां प्रयोग हुआ है। दोहाकार ने बिंब और प्रतीकों का भी समुचित प्रयोग करके दोहों को प्रभावी बनाने का प्रयास किया है। किंतु संग्रह के कुछ दोहों में छंद दोष रह गये हैं, वहीं प्रूफ की अशुद्धियां भी दृष्टिगोचर होती हैं। संग्रह में कुछ रचनाएं दुमदार दोहा और ड्यौढ़ा दोहा के नाम से शामिल की गई हैं।
पुस्तक : कांच के रिश्ते दोहाकार : श्रीमती शकुन्तला अग्रवाल ‘शकुन’ प्रकाशक : साहित्यागार, जयपुर पृष्ठ : 100 मूल्य : रु. 200.