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बिजली का कोहराम

कविता
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डॉ. राजेन्द्र गौतम

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डल से

लोहित तक—

ये बादल

ख़बरें ही बरसाते।

रोज़ विमानों से

गिरती हैं

रोटी की अफवाहें,

किन्तु कसी हैं

सांप सरीखी

तन-लहरों की ब्ाांहें।

अंतरिक्ष से

चित्रित हो हम—

विज्ञापन बन जाते।

किस दड़बे में

लाशों का था

सब से ऊंचा स्तूप—

खोज रही हैं

गिद्ध्-दृष्टियां

अपने-अपने ‘स्कूप’।

कितने

किस्मत वाले हैं हम—

मर कर सुर्खी में आते।

कल तक सहते थे

लूओं का

हम ही क़त्ले-आम,

आज

हमारी ही बस्ती में

बिजली का कुहराम।

बची-खुची सांसें

निगलेंगी

कल पाले की रातें।

हुए पराजित गांव

बादल आए इन्द्रधनुष ले,

टूट पड़ी सेना अम्बर से—

हुए पराजित गांव।

बांस बराबर आया पानी,

बहती जाती छप्पर-छानी,

फिर भी मस्ती में ‘रजधानी’

यों तो उत्सव-संध्याओं में

चर्चे इनके ही होते हैं—

पर आशंकित गांव।

ढाणी, टिब्बों, फोग-वनों में

कैसा छाया ‘सोग’ मनों में,

भय का फैला रोग जनों में।

बिजली कोड़े बरसाती है,

खाल उधेड़ी इसने तन की—

थर-थर कम्पित गांव।

किधर गया रलदू का कुनबा?

बिखर गया हरदू का कुनबा!

बदलू का भी डूबा कुनबा।

बोल लावणी के कजली के—

सब गर्जन-तर्जन में डूबे,

छितरा जित-तित गांव।

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