योगेन्द्र नाथ शर्मा ‘अरुण’
‘ज्ञानपीठ’ के नव लेखन पुरस्कार से सम्मानित अमलेंदु तिवारी का उपन्यास ‘विरक्त’ लेखक द्वारा लिखा गया दूसरा उपन्यास है, जो मुम्बई और बनारस के साथ ही अन्य अनेक स्थानों की घटनाओं और उनके सूत्रधार पात्रों की भीड़ में ऐसा उलझता-सा प्रतीत होता है कि पाठक को लगता है कि वह किसी भूल-भुलैया में फंस गया है।
इस उपन्यास का सबसे बड़ा आकर्षण है इसकी टकसाली भाषा। इसी के साथ बांधने वाली है लेखक की वर्णन-शैली, जिसमें बीते हुए अतीत को भी अमलेंदु ‘वर्तमान’ बना कर चित्रित करने में सिद्धहस्त लगते हैं।
कथा का आरंभ पुणे के ‘ओशो इंटरनेशनल कम्यून’ से होता हुआ मुम्बई तक पहुंचता है और फिर लेखक अपनी कथा को गांव से बनारस ले आता है। अंत में फिर से मुम्बई में ही कथा का अंत होता है। लेखक ने प्रत्येक नए परिच्छेद के आरंभ में जो विशेष कथन दिए हैं, वे इस उपन्यास के आकर्षण हैं।
सबसे पहले ही लेखक ने जो सूक्ति जैसी बात लिखी है, वह देखिए ‘ईश्वर ने मनुष्य को अनेक शक्तियां दी हैं लेकिन जो सबसे बड़ी शक्ति दी है, वह है दुःख सहने की शक्ति। इसी शक्ति के कारण मनुष्य को भयानक से भयानक असह्य दर्द भी कुछ समय बाद सहनीय हो जाता है।’
मुम्बई का जिक्र आते ही लेखक पांचवें परिच्छेद के शुरू में लिखता है ‘मुम्बई की बारिश मानव मन के अवसाद को और बढ़ा देती है।’
‘विरक्त’ उपन्यास में पात्रों का ऐसा जमघट है कि पाठक उनमें उलझ कर रह जाता है। कथानायक ‘पिताजी’ के इर्दगिर्द रची गई ‘विरक्त’ की कथा पुणे से मुम्बई आती है, फिर गांव से होती हुई बनारस पहुंचती है, तो जैसे लेखक यहीं ठहर जाता है और फिर बीएचयू के होस्टल, गंगा-स्नान, बाबा विश्वनाथ और बाई जी के कोठे तक भी पाठक को ले जाता है। नेपाल, कोलकाता और अन्य कई स्थानों का वर्णन भी ‘विरक्त’ में लेखक ने किया है।
महाराष्ट्रीयन दंपति कुलकर्णी और उनकी पत्नी की आत्मीयता के साथ ही क्रिश्चियन नर्स मायरा का उल्लेख भी पाठक को याद रहता है। गांव से बीमार मां को मुम्बई लाकर उसका इलाज कराना इस उपन्यास की ऐसी बड़ी समस्या है, जो मुम्बई से गांव तक घुमाए रखती है। पिताजी ‘साहित्यिक अभिरुचि’ के व्यक्ति थे, लेकिन उन्हें बाबा के दबाव में ‘वकील’ बनना पड़ा, शायद इसी कारण अमलेंदु तिवारी ने ‘विरक्त’ उपन्यास में कचहरी के साथ ही वकालत की जमकर धुलाई की है। पिताजी अपने गुरु दयाल बाबू से वकालत के बारे में जो कहते हैं, वह आप सब भी जानिए ‘इस पेशे में एक दशक से भी अधिक समय गुज़ार देने के बाद एक बात समझ में आ गई है कि यहां सब कुछ मिल सकता है लेकिन मानसिक शांति और आत्मानुभूति नहीं मिल सकती है। समय की खराशों ने मेरी सूरत कुछ यूं बदल दी है कि अब अपना ही चेहरा अजनबी लगता है। किस्मत के मारों, गरीबों, दुखियों, पीड़ितों से फीस लेने की इच्छा नहीं होती है, फिर सोचता हूं कि घर कैसे चलेगा? क्यों मैं बाकी वकील मित्रों की तरह नहीं बन जाता। कुछ सम्पन्न मुवक्किल ऐसे हैं, जिनके लिए मुकदमेबाजी एक नशा-सा बन गई है, वह व्यर्थ के केस ठोकते रहते हैं।’
उपन्यास में सफल प्रेम की कई कथाएं हैं, लेकिन उनका प्रभाव क्या हुआ, यह समझ से परे रहता है। अंत में एक मन को छूने वाली उक्ति मिली है ‘हम सबका जीवन आसक्ति से आरंभ होकर एक विरक्ति पर ही तो खत्म होता है और अंततः जब सब खत्म ही हो जाता है तब कब, क्यों, कहां और कैसे क्या मायने रखते हैं?’ शायद यही इस उपन्यास ‘विरक्त’ के नामकरण का सारतत्व है।
पुस्तक : विरक्त लेखक : अमलेंदु तिवारी प्रकाशक : राजपाल एंड संस, नयी दिल्ली पृष्ठ : 207 मूल्य : रु. 325.