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गुड़ुप!

लघुकथा
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सुभाष नीरव

दिन ढलान पर है और वे दोनों झील के किनारे कुछ ऊंचाई पर बैठे हैं। लड़की ने छोटे-छोटे कंकर बीनकर बाईं हथेली पर रख लिए हैं और दाएं हाथ से एक एक कंकर उठाकर नीचे झील के पानी में फेंक रही है, रुक रुककर। सामने झील की ओर उसकी नजरें स्थिर हैं। लड़का उसकी बगल में बेहरकत खामोश बैठा है।

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‘तो तुमने क्या फैसला लिया?’ लड़की लड़के की ओर देखे बगैर पूछती है।

‘किस बारे में।’ लड़का भी लड़की की तरफ देखे बिना गर्दन झुकाए पैरों के पास की घास के तिनके तोड़ते हुए प्रश्न करता है।

इस बार लड़की अपना चेहरा बाईं ओर घुमाकर लड़के को देखती है। ‘बनो मत। तुम अच्छी तरह जानते हो, मैं किस फैसले की बात कर रही हूं।’

लड़का भी चेहरा ऊपर उठाकर अपनी आंखें लड़की के चेहरे पर गड़ा देता है। ‘यार! ऐसे फैसले तुरत-फुरत नहीं लिए जाते। समय लगता है। समझा करो।’

लड़की फिर दूर तक फैली झील की छाती पर अपनी निगाहें गड़ा देती है। साथ ही हथेली पर बचा एकमात्र कंकर उठा कर नीचे गिराती है ‍...गुड़ुप!

‘ये झील बहुत गहरी है न‍?’

‘हां, बहुत गहरी। कई लोग डूबकर मर चुके हैं। पर तुम ऐसा क्यों पूछ रही हो?’ लड़का लड़की की तरफ देखते हुए पूछता है। लड़की की नज़रें अभी भी दूर तक फैले पानी पर टिकी हैं। ‘क्या मालूम मुझे इस झील की जरूरत पड़ जाए।’

लड़का घबरा कर लड़की की ओर देखता है। ‘क्या मूर्खों जैसी बात करती हो, चलो उठो, अब चलते हैं। अंधेरा भी होने लगा है।’

दोनों उठकर चल देते हैं। दोनों खामोश हैं। पैदल चलते हुए लड़की के अंदर की लड़की हंस रही है। ‘लगता है, तीर खूब निशाने पर लगा है। शादी तो यह मुझसे क्या करेगा। मैदान ही छोड़कर भागेगा। अगले महीने प्रशांत इस शहर में पोस्टेड होकर आ रहा है। वो मेरे साथ लिव-इन में रहना चाहता है।’

लड़के के भीतर का लड़का भी फुसफुसाता है। ‘जाने किसका पाप मेरे सिर मढ़ रही है। मैं क्या जानता नहीं आज की लड़कियों को, कुछ दिन इसके साथ मौज-मस्ती क्या कर ली, शादी के सपने देखने लगी। हुं...! मेरी कम्पनी वाले मुझे कब से मुंबई ब्रांच में भेजने को पीछे पड़े हैं। कल ही ऑफर मंज़ूर कर लेता हूं।’

चलते-चलते वे दोनों सड़क के उस बिंदु पर पहुंच गए हैं जहां से सड़क दो फाड़ होती है। एक पल वे खामोश से एक-दूसरे को देखते हैं, फिर अपनी अपनी सड़क पकड़ लेते हैं।

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